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________________ तप साधना की उपादेयता एवं उसका महत्त्व... 131 को उपवासादि का प्रत्याख्यान करवाया जाता है। यह तप मंगल वृद्धि के लिए करते हैं। अनन्तबली तीर्थङ्कर पुरुषों ने भी अपने जीवन में जो भी श्रेष्ठ कार्य किये हैं जैसे- दीक्षा, केवलज्ञान, धर्म देशना आदि के प्रारम्भ में तपश्चरण अवश्य करते हैं। प्रत्येक शुभ कार्य के आदि में तप करते हैं, क्योंकि तप को परम मंगल, महा मंगल कहा गया है। भावार्थ यह है कि सभी तीर्थङ्कर तप के साथ ही प्रव्रज्या ग्रहण करते हैं, तप के साथ ही उन्हें केवलज्ञान होता है। यह नियम जैन संस्कृति के समग्र श्रमणाचार पालक साधु-साध्वियों के लिए एक समान है। कर्म क्षय की दृष्टि से - तप की शक्ति अद्भुत है । वह प्रगाढ़ रूप से बंधे हु कर्मों को भी नष्ट करने की ताकत रखती है। जो कर्म आत्मा के साथ तादात्म्य भाव को प्राप्त हो गये हैं तथा जिन कर्मों के कटु परिणामों को भोगना निश्चित है, वह निकाचित कर्म कहलाता है। निकाचित कर्मों का संचय अनेक भवों से उपार्जित किया हुआ होता है और उस कारण वे कर्म अत्यन्त गाढ़ रूप में बंधे होते हैं, अत: उनका नाश करना बहुत कठिन है । तदुपरान्त तपोयोग के द्वारा निकाचित कर्मों को भी नष्ट किया जा सकता है जैसे- सुवर्ण में रहे हुए मैल को अग्नि पृथक् कर देती है, दूध में रहे हुए जल को हंस पृथक् कर देता है, वैसे ही आत्म प्रदेशों के साथ रहे हुए कर्म मैल को तप पृथक् कर देता है। आर्ष वाणी कहती है कि- "भवकोडि संचियं कम्मं तवसा निज्जरिज्जइ" अर्थात करोड़ों भव में संचित किये गये कर्म भी तप से स्थिर (नष्ट) हो जाते हैं। इसी बात को स्पष्ट करते हुए सोमप्रभसूरि ने कहा है जैसे- दावानल के बिना अटवी को जलाने में कोई समर्थ नहीं है जैसे- मेघ के बिना दावाग्नि को शान्त करने में कोई समर्थ नहीं है जैसे- तीव्र पवन के बिना मेघ को छिन्नभिन्न करने में कोई समर्थ नहीं है वैसे ही तप के बिना कर्म समूह को विनष्ट करने में कौन समर्थ हो सकता है ? अर्थात कोई नहीं । यहाँ कोई ऐसा कहते हैं कि "ज्ञान रूपी अग्नि समस्त कर्मों को जलाकर भस्म कर देती है" यह भगवद्गीता (4 / 37 ) का वचन है। तब तप द्वारा सभी कर्म समूह का नाश होता है यह कैसे माना जा सकता है ? इसका सीधा समाधान यह है कि यहाँ 'कर्म' शब्द से आत्मा के शुद्ध स्वरूप को मलिन करने वाली एक प्रकार की पौद्गलिक वर्गणाओं का सूचन है और भगवद्गीता के
SR No.006246
Book TitleTap Sadhna Vidhi Ka Prasangik Anushilan Agamo se Ab Tak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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