SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 141
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तप के भेद-प्रभेद एवं प्रकारों का वैशिष्ट्य...75 5. ध्यान तप ध्यान शब्द 'ध्येय चिन्तायाम्' धातु से निष्पन्न है। शब्दोत्पत्ति की दृष्टि से ध्यान का अर्थ चिन्तन है, किन्तु परम्परा प्राप्त अर्थ की दृष्टि से ध्यान का अर्थचित्त को एक विषय पर स्थिर करना है। आचार्य उमास्वाति ने ध्यान का उक्तार्थ निरूपित करते हुए कहा है - "एकाग्रचिन्ता निरोधो ध्यानम्" एकाग्र चिन्तन पूर्वक मन, वाणी और काया का निरोध करना ध्यान है।153 ध्यान का सीधा सा अर्थ है - मन की एकाग्रता। आचार्य हेमचन्द्र ने पूर्व मतों का समर्थन करते हुए कहा है कि "ध्यानं तु विषये तस्मिन्नेक प्रत्यय संततिः" अपने विषय में मन का एकाग्र हो जाना ध्यान है।154 आचार्य भद्रबाहु ने भी इसी तथ्य को पुष्ट करते हुए लिखा है कि “चित्तस्सेगग्गया हवइ झाणं" चित्त को किसी भी विषय पर स्थिर करना, एकाग्र करना ध्यान है।155 जैन परम्परानुसार इन परिभाषाओं का गूढार्थ यह है कि केवल मन की एकाग्रता ही ध्यान नहीं है अपितु शरीर, वाणी और मन की एकाग्र प्रवृत्ति अथवा निष्पकम्प स्थिति ध्यान है। शरीर और वाणी की स्थिरता होने पर ही मन स्थिर होता है। चौदहवाँ गुणस्थानवी जीव शैलेषीकरण में क्रमश: शरीर, वाणी और मन का निरोध कर सर्व कर्मों से मुक्त बनता है। __आचार्य पतञ्जलि ने मन की एकाग्रता को ही ध्यान कहा है।156 उन्होंने एकाग्रता और निरोध ये दोनों लक्षण चित्त के ही माने हैं। विसुद्धिमग्ग के अनुसार भी ध्यान मानसिक एकाग्रता से सम्बन्धित है,157 पर जैनाचार्यों की इस सम्बन्ध में पृथक धारणा रही है। उन्होंने ध्यान को सिर्फ मानसिक न कहकर वाचिक और कायिक भी माना है। पतञ्जलि ने जिसे सम्प्रज्ञात समाधि कहा है, वह जैन परिभाषा में शुक्लध्यान का पूर्व चरण है158 तथा जिसे असम्प्रज्ञात समाधि कहा है, उसे जैन परम्परा में शुक्लध्यान का उत्तरचरण कहा है।159 केवलज्ञानी का ध्यान निरोधात्मक होता है, किन्तु छद्मस्थ संसारी जीवों का ध्यान एकाग्रतात्मक और निरोधात्मक दोनों प्रकार के होते हैं। यहाँ प्रश्न होता है कि जब मन, वचन और काया तीनों योग की एकाग्रता ध्यान है तब ग्रन्थों में 'मन की एकाग्रता' इस कथन पर बल क्यों दिया गया है? जैनाचार्यों ने चित्त एकाग्रता, मानसिक एकाग्रता जैसे शब्दों को ही प्रमुखता क्यों दी? आचार्य भद्रबाहु ने इस प्रश्न का समाधान देते हुए कहा है-160 शरीर में
SR No.006246
Book TitleTap Sadhna Vidhi Ka Prasangik Anushilan Agamo se Ab Tak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy