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________________ 72...तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक 5. धर्मकथा - वाचना गृहीत पृच्छना आदि द्वारा पर्यालोचित एवं अनुप्रेक्षा द्वारा स्थिरीकृतविषय का उपदेश करना धर्मकथा स्वाध्याय है। स्वाध्याय का अन्तिम भेद मधुमक्खी की प्रक्रिया जैसा है। मधुमक्खी विविध रंगों के सुवासित फूलों का रस लेती है, किन्तु अपनी सामर्थ्य से वह इस प्रकार का संतुलन स्थापित करती है कि उन रसों में से निर्मित मधु विविध प्रकार का नहीं होता, उसके रंग और उसकी मधुरता में सादृश्य होता है उसी प्रकार धर्मकथा में इससे पूर्व के वाचना आदि प्रकारों का निचोड़ होता है और वह स्वपर कल्याण में हितकारी बनता है। स्वाध्याय के नियम - अनुभवी साधकों ने स्वाध्याय के कुछ नियम बतलाये हैं जिनके परिपालन से स्वाध्याय आत्मस्थ एवं मोक्ष फलदायी होता है। वे नियम इस प्रकार हैं139 (i) एकाग्रता – श्रुत शास्त्रों का अध्ययन करते समय मन की एकाग्रता होना अत्यावश्यक है। मानसिक या कायिक चंचलता से सूत्रार्थ हृदयंगम नहीं हो सकता है। ___(ii) नैरन्तर्य - स्वाध्याय नियमित करना चाहिए, अनियमित स्वाध्याय से शास्त्रज्ञान न परिणत होता है और न ही स्थिर बनता है। (ii) विषयोपरति - स्वाध्याय करते वक्त चित्तवृत्ति को विषय-वासना व कषाय-कामना से उपरत रखना चाहिए, तभी शास्त्र पाठ धारणा रूप होते हैं। (iv) उत्साह - स्वाध्याय के दरम्यान साधक के भीतर आत्मविश्वास का यह निरन्तर दीपक प्रज्वलित रहना चाहिए कि मेरी अन्तर आत्मा में शाश्वत प्रकाश प्रसरित हो रहा है, शुभ संकल्प फलीभूत हो रहा है। (v) स्थान - स्वाध्याय हेतु शान्त, एकान्त एवं स्वच्छ स्थान होना जरूरी है। . इसी तरह स्वाध्यायी अल्पनिद्रालु, अल्पभाषी, सात्त्विक, आहारसेवी आदि कई गुणों से समन्वित होना चाहिए। महत्त्व - आभ्यन्तर तप में स्वाध्याय का चतुर्थ स्थान है, किन्तु इसका मूल्य विविध दृष्टियों से स्वीकारा गया है। जिस प्रकार दैहिक विकास के लिए व्यायाम और भोजन आवश्यक है, उसी प्रकार आत्म परिष्कार एवं बौद्धिक विकास के लिए स्वाध्याय जरूरी है। एक विचारक के अनुसार “पुस्तकें ज्ञानियों
SR No.006246
Book TitleTap Sadhna Vidhi Ka Prasangik Anushilan Agamo se Ab Tak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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