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________________ 68...तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक की आवश्यकता हो, उसे तद्योग्य सेवा से लाभान्वित करना वैयावृत्य कहा जाता है। वैयावृत्य की विधि - सेवा एक विराट् धर्म है, इसका अर्थ अत्यन्त व्यापक है, इसकी विधि बहुत सूक्ष्म है। हर व्यक्ति इस धर्म का निर्वाह सम्यक् रूप से नहीं कर सकता है। इसके लिए सर्वप्रथम विवेक का होना आवश्यक है। जैसे कि अमुक व्यक्ति को यह जरूरत है, अमुक व्यक्ति के लिए इस प्रकार का सेवा कार्य आवश्यक है, अमुक व्यक्ति मेरे बोलने मात्र से सन्तुष्ट या स्वस्थ हो सकता है आदि। यह नहीं कि प्रसंग की आवश्यकता कुछ और ही हो और सेवा कुछ अन्य प्रकार से की जाये। पूर्वाचार्यों ने समय को ध्यान में रखते हुए सेवा के अनेक रूप बतलाये हैं जैसे - पूर्वोक्त दस को जरूरत होने पर आहार देना, पानी देना, संस्तारक देना, आसन बिछाना, गुरुजनों के लिए उनके योग्य सामग्री जुटाना, रुग्ण मुनियों के लिए दवा आदि का प्रबन्ध करना, किसी ने अपराध कर लिया हो तो उसकी विशुद्धि करवाना। इस तरह सेवा की कई विधियाँ है।126 सेवा-विधि का दूसरा नियम यह है कि सेवा करते वक्त सेवाभावी के मन में रोगी के प्रति घृणा या ग्लानि नहीं होनी चाहिए, क्योंकि यदि रुग्ण उस स्थिति से परिचित हो जाये तो उसे शान्ति के स्थान पर मानसिक अशान्ति हो सकती है। सेवा-विधि का तीसरा नियम यह है कि सेवा करने वाला स्वयं को हीन एवं असहाय न समझे। वह प्रसन्नचित्त योग से इस कृत्य का निर्वाह करे। सेवा-विधि का सर्वोच्च नियम है कि वह बिना किसी स्वार्थ या अपेक्षा पूर्ति के मनोभाव से की जाये। यथार्थ सेवा में किसी तरह के प्रतिफल की भावना का उद्वेग ही नहीं होता। शास्त्रों में नन्दिषेण मुनि की सेवा आदर्श रूप मानी गयी है। उनके जीवन चरित्र में सेवा के विविध आयाम देखने-सुनने को मिलते हैं। महत्त्व- जैन धर्म में सेवा कर्म को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है। इस तपोकर्म के पीछे मुख्यत: “परस्परोपग्रहो जीवानाम्' की भावना छुपी हुई है। सामान्यतया प्राणिमात्र में ही परस्पर उपकार की भावना रहती है। आचार्य उमास्वाति ने जीव का लक्षण यही बतलाया है। वे तत्त्वार्थसूत्र में कहते हैं127 "परस्परोपग्रहो जीवानाम्' अर्थात जीवों में परस्पर एक-दूसरे का सहयोग व उपकार करने की वृत्ति रहती है। एक-दूसरे के सहयोग के बिना कोई जीवित नहीं
SR No.006246
Book TitleTap Sadhna Vidhi Ka Prasangik Anushilan Agamo se Ab Tak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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