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________________ 58...तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक से होती है, उस प्रकार का प्रायश्चित्त स्वीकार करना तदुभय प्रायश्चित्त कहलाता है। एकेन्द्रिय आदि जीवों का संघट्टा होने पर उस दोष से निवृत्त होने के लिए यही प्रायश्चित्त लिया जाता है। 4. विवेक योग्य - जिस दोष की शुद्धि किसी वस्तु का त्याग करने से ही हो, उसे विवेक प्रायश्चित्त कहते हैं। जैसे आधाकर्म या औद्देशिक आहार आ जाये तो उसका परिष्ठापन करना ही पड़ता है, ऐसा करने मात्र से पूर्व दोष की विशुद्धि होती है। 5. व्युत्सर्ग योग्य – जिस दोष की विशुद्धि कायोत्सर्ग करने से ही होती है, उसे व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त कहते हैं। जैसे नदी पार करने में, गमनागमन करने में, एक स्थान से दूसरे स्थान पर आने-जाने में, मल-मूत्रादि का परित्याग करने में असावधानीवश कोई दोष लग गया हो तो उन भिन्न-भिन्न दोषों से मुक्त होने के लिए भिन्न-भिन्न परिमाण में श्वासोश्वास युक्त कायोत्सर्ग किया जाता है। कायोत्सर्ग करने मात्र से उन दोषों की विशुद्धि हो जाती है। ___6. तप योग्य – जिस दोष की शुद्धि तप करने से होती है, उसके लिए आगमोक्त विधि से तपश्चर्या करना, तप प्रायश्चित्त कहलाता है। सचित्त वस्तु को छूने तथा आवश्यक सामाचारी, प्रतिलेखन, प्रमार्जन आदि नहीं करने से लगने वाले दोषों की शुद्धि के लिए यह प्रायश्चित्त दिया जाता है। इस प्रायश्चित्त को पूरा करने के लिए निर्विकृतिक, आयम्बिल आदि से लेकर छहमासी तप का विधान है। 7. छेद योग्य – जिस दोष की शुद्धि के लिए दीक्षा पर्याय का छेदन किया जाता हो, उसे छेदार्ह प्रायश्चित्त कहते हैं। सचित्त विराधना, प्रतिक्रमण अकरणता आदि के कारण लगने वाले दोषों की शुद्धि के लिए यह प्रायश्चित्त है। इसमें दोषों की न्यूनाधिकता के हिसाब से पाँच दिन से लेकर छह मास तक के दीक्षा पर्याय की न्यूनता करने का विधान है। 8. मूल योग्य - यहाँ मूल का अर्थ है प्रायश्चित्त योग्य मुनि में फिर से महाव्रतों की स्थापना करना अत: दुबारा दीक्षा देने से जिन दोषों की शुद्धि होती है, उसे मूल प्रायश्चित्त कहते हैं। स्पष्टार्थ है कि छद्मस्थ साधु कभी-कभी इतने गुरुतर दोषों का सेवन कर लेता है कि आलोचना और तप आदि से भी उसकी शुद्धि नहीं हो सकती। उन
SR No.006246
Book TitleTap Sadhna Vidhi Ka Prasangik Anushilan Agamo se Ab Tak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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