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________________ 48...तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक का हेतु बनता है। पाद विहार, केशलोच, तपश्चर्या आदि के कष्ट जान-बूझकर स्वीकार किये जाते हैं अत: इस प्रकार का कायक्लेश निश्चित रूप से आत्मविशुद्धि में उपकारक बनता है और तप की कोटि में गिना जा सकता है। यहाँ सहज प्रश्न उठता है कि शास्त्रों में एक तरफ तो मानव देह की अपार महिमा गाई गई है, चार दुर्लभ वस्तुओं में मनुष्य जन्म को परम दुर्लभ माना गया है। इसे चिन्तामणिरत्न की उपमा तक दी गयी है तथा दूसरी ओर शरीर को कष्ट देने की बात कही गयी है। यह विरोधाभास समझ नहीं आता। एक जगह "शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम्" की बात है और दूसरे स्थान पर “देह दुक्खं महाफलं' की चर्चा है इस प्रकार का वैचारिक मतभेद क्यों? इसका उत्तर यह है कि शरीर को कष्ट देने का अर्थ शरीर को नष्ट करना नहीं है, प्रत्युत उसका सदुपयोग करना है। शरीर हमारा शत्रु नहीं है वह तो धर्म साधना का बहुत बड़ा माध्यम है। आचार्य मधुकर मुनि ने इसे सेवक की उपमा देते हुए कहा है कि सेवक से काम लेते रहना चाहिए। सेवक को यथासमय वेतन देने, मधुर वचन कहने, यथायोग्य भोजन आदि देने से वह प्रसन्न रहता है और मालिक की सेवा में भी तत्पर रहता है। जो सेवक सब कुछ पाकर भी यदि मालिक की सेवा में हाजिर न रहे तो वह ईमानदार नहीं कहलाता है।60 __ वस्तुतः इस देह से धर्म साधना आदि अनेक तरह की सम्यक प्रवृत्तियाँ की जा सकती हैं इसीलिए इस शरीर को दुर्लभ बताया गया है, किन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं है कि इसे निठल्ले बिठाये रखे, वरना यह लोह जंग की भाँति जाम हो जायेगा फिर किसी तरह के काम का नहीं रह सकेगा। शरीर की मशीन निराबाध रूप से प्रवर्तित रहे, उसके द्वारा व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक हर तरह के कार्य सम्पादित होते रहे, इसी लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए शरीर कष्ट की बात कही गई है। वास्तव में वह कष्ट, कष्ट नहीं है, किन्तु शरीर का सदुपयोग है। ___ उक्त समाधान के अन्तर्गत दूसरी शंका यह उत्पन्न होती है कि जब शास्त्रों में “परिणामे बन्ध परिणामे मोक्ष' का कथन है तब काया को केशलोच, आतापना, तपश्चरण आदि रूप अनावश्यक कष्ट ही क्यों दिये जाये, वैचारिक स्तर पर भी धर्म साधना की जा सकती है?
SR No.006246
Book TitleTap Sadhna Vidhi Ka Prasangik Anushilan Agamo se Ab Tak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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