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________________ 44... ... तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक नहीं है अपितु दीर्घ तपश्चर्या, मानसिक अस्वस्थता, दैहिक क्षीणता, शक्तिहीनता, शास्त्र सर्जन, शासन प्रभावना आदि कार्यों में यथावश्यक इनका सेवन किया जाये तो कोई दोष नहीं है किन्तु प्रतिदिन विगय का सेवन और प्रमाण से अधिक पौष्टिक आहार नहीं करना चाहिए । उत्तराध्ययनसूत्र में नित्य एवं मर्यादा रहित विगय सेवी श्रमण को पापी श्रमण की उपमा दी गयी है। 52 साथ ही श्रमण की साधना उत्तरोत्तर बढ़ती रहे, इस भाव से यह निर्देश भी दिया गया है कि वह शरीर को खुराक देने के उद्देश्य से ही विगय सेवन करे उसमें स्वादवृत्ति किञ्चिद् मात्र भी न रखे। स्वाद लोलुपता से निम्न हानियाँ होती हैं 53_ 1. स्वाद के वशीभूत हुआ साधक भोजन में आसक्त हो जाता है 2. वह स्वाध्याय काल में भी स्वादिष्ट और सरस भोजन की खोज में तन्मय रहता है 3. गृहीत नियमों एवं सामाचारियों को ताक पर रखकर जहाँ रसदार भोजन मिलता है वहीं पहुंच जाता है 4. आवश्यक मर्यादाओं का लंघन कर डालता है 5. कदाच उसकी लोलुपता को देख लोग कह सकते हैं कि यह साधु है या स्वादु ! 6. रसासक्त व्यक्तियों के लिए कहा गया है कि - साठे कोसे लापसी, सोए कोसे सीरो । मिलिया सुं छोड़े नहीं, नणद बाइ रो वीरो ।। सरस आहार के लिए व्यक्ति साठ से सौ कोस का चक्कर भी खा लेता है। फिर तीव्र आसक्ति से प्राप्त किये आहार को खाते समय विवेक भी नहीं रह पाता है। वह स्वादवश ठूंस-ठूंस कर खाता है, जिसके परिणामस्वरूप अनेक प्रकार की बीमारियों से आक्रान्त हो जाता है। शास्त्रकार कहते हैं कि कुण्डरीक ने एक हजार वर्षों तक संयमव्रत का उत्कृष्ट पालन किया किन्तु अन्ततः रसलोलुपता के कारण संयम से भ्रष्ट होकर सोलह महारोगों से घिर गया और नरक गति को प्राप्त किया। उत्तराध्ययनसूत्र में उदाहरण देते हुए बताया गया है कि जैसे- अपथ्य आम खाकर एक राजा ने अपना राज्य खो दिया । " अपत्थं अम्बगं भोच्चा, राया रज्जं तु हारए।” वैसे ही मनुष्य थोड़े से स्वाद के कारण अपने जीवन से भी खिलवाड़ कर लेता है। 54
SR No.006246
Book TitleTap Sadhna Vidhi Ka Prasangik Anushilan Agamo se Ab Tak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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