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________________ xlvi... आगम अध्ययन की मौलिक विधि का शास्त्रीय विश्लेषण है। वचन आदि पर भी नियंत्रण होता है। योगोद्वहन के अन्तर्गत गुरुगम पूर्वक तपयुक्त होकर आगम वाचना ली जाती है। तप पूर्वक वाचना लेने से वह अधिक प्रभावी बनती है। तप के दौरान इन्द्रिय पोषक एवं विषय पोषक पदार्थों का त्याग होने से स्वभावत: कायिक चंचलता समाप्त होती है, आहार के प्रति आसक्ति न्यून होती है, इच्छाओं का निरोध होता है तथा आहारी से आणाहारी पद की ओर प्रयाण होता है। अणाहारी अवस्था ही मोक्ष है। प्रसिद्ध कहावत है- "जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन" और "जैसा मन वैसा जीवन"। इसी के साथ यह सब योगोद्वहन के मूल हेतु ज्ञानाभ्यास में सहायक बनते हैं। ___ कई साधकों के मन में यह प्रश्न भी हो सकता है कि हमारे यहाँ प्रत्येक क्रिया गुरुगम पूर्वक ही क्यों बताई गई है और योगोद्वहन में तो गुरुगम परमावश्यक माना गया है ऐसा क्यों? गुरु का स्थान हर युग में सर्वोपरि देखा गया है। यदि प्राचीन भारतीय परम्परा पर दृष्टिपात करें तो उस समय ज्ञानार्जन हेतु गुरुकुलवास को ही श्रेष्ठ माना जाता था और, यही सर्वोत्तम प्रणाली है। गुरु के बहुमान एवं अंतरंग श्रद्धा पूर्वक गृहीत पाठ अधिक स्थिर एवं स्थायी बनता है। उनके अन्तरंग आशीष की प्राप्ति होती है जो जीवन के कल्याण एवं उत्कर्ष में सहायक बनती है। पूज्यजनों के हृदय से नि:सृत शुभ भावों के परमाणु समस्त विघ्न एवं आपदाओं का हरण करते हैं। योगोद्वहन में गुरु की आवश्यकता बिल्कुल वैसे ही होती है जैसे कि एक बच्चे के लिए स्कूल की। आधुनिक युग में हर ज्ञान Computer, Internet, Mobile पर उपलब्ध है उसके उपरान्त भी बच्चों को स्कूल भेजते हैं क्योंकि हम जानते हैं जो माहौल, संस्कार एवं वातावरण स्कूल में उपलब्ध हो सकता है वह अन्यत्र नहीं। उसी तरह आगम आदि के अध्ययन हेतु जो मानसिक, वैचारिक एवं कायिक स्थिरता तथा अप्रमत्तता आदि चाहिए वह गुरुनिश्रा में सहजतया आ सकती है। स्वमति से बाल जीव सम्यक अर्थ आदि का बोध नहीं कर पाता। कई स्थानों पर अनुभव ज्ञान की अपेक्षा भी होती है जिसे देने में गुरु ही समर्थ हैं। साथ ही विभिन्न शंकाओं का समाधान करने में पदस्थ गुरु ही सक्षम होते हैं अत: जिनवाणी की उत्सूत्र प्ररूपणा न हो और वह सम्यक रूप से जीवन एवं आचरण में उतरे। इस हेतु गुरुगम पूर्वक ही आगम वाचना ली जाती है। योगोद्वहन के माध्यम से शिष्य के अंतर में ऋजुता, लघुता, सरलता आदि गुण विकसित करने का प्रयास किया जाता है।
SR No.006245
Book TitleAgam Adhyayan Ki Maulik Vidhi Ka Shastriya Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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