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________________ 24... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन आधार पर होता है। भिक्षाटन के लिए जाने से अहंकार का दमन होता है जो कि साधुता गुण को प्रकट करने के लिए आवश्यक है। इससे आहार लोलुपता एवं रसासक्ति भी कम होती है। स्वयं गवेषणा करके आहार लाने से सात्विक एवं निर्दोष आहार प्राप्त हो सकता है। यह नियम मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य की अपेक्षा से भी हितकारी है। इससे प्रमाद, कषाय, पराधीनता आदि कम होते हैं। सामान्य लोगों में साधु-संतों के प्रति बढ़ते भ्रम, अनादर आदि की भावना एवं पाखंड आदि की मिथ्या धारणा दूर होती हैं। साधु अपने मूल उद्देश्य की ओर सम्यक प्रकार से आगे बढ़ सकता है। कई लोग कहते हैं कि यदि साधु सामने लाया हुआ आहार करे तो क्या हर्ज है? इससे उसके समय की बचत होगी जिससे वह विशेष स्वाध्याय आदि करके समाज का अधिक उद्धार कर सकता है? बात किसी अपेक्षा से सही भी है क्योंकि मुंबई, कलकत्ता एवं बड़े-बड़े शहरों में गोचरी भ्रमण में बहुत समय बीत जाता है और उसके बाद भी शुद्ध आहार की प्राप्ति मुश्किल से होती है। और उसमें भी Traffic आदि के कारण प्राण हानि का भय बना रहता है, परंतु यदि इसके सम्पूर्ण लाभ-हानि पर चिंतन किया जाए तो इससे लाभ कम और हानि अधिक है। गृहस्वामी द्वारा लाया हुआ भोजन लेने से मुनि में आहार लोलुपता एवं रसासक्ति बढ़ने की संभावना अधिक रहती है। उष्ण, गरिष्ठ और अधिक भोजन करने से प्रमाद बढ़ता है जिससे स्वाध्याय में हानि होती है। लोगों में मुनि के प्रति अभाव आने की संभावनाएँ बढ़ जाती हैं। निमित्त से लाए जाने वाले आहार में अनेक दोष लगने की संभावना भी रहती है। इससे लघुता गुण में वृद्धि नहीं होती तथा साधुचर्या की कठिनता का भी आभास नहीं होता। ___ वर्तमान समस्याओं के संदर्भ में यदि भिक्षाटन का मूल्य आंका जाए तो आज भिक्षाटन या भिक्षा मांगना स्वयं एक बड़ी समस्या है। ऐसी स्थिति में भिक्षाटन के द्वारा समस्या का समाधान कैसे हो सकता है? इस संदर्भ में गहन चिंतन करें तो भारतीय संस्कृति में साधु-संतों एवं याचकों द्वारा भिक्षार्थ गमन की प्रक्रिया प्राचीन काल से रही है। गृहस्थ के लिए भिक्षा देना पुण्य का कार्य समझा जाता है। वे साधु संत जो सम्पूर्ण घर परिवार और सांसारिक कार्य छोड़ देते हैं उन्हें यदि आहार के लिए स्वयं ही सब कुछ करना पड़े तो फिर उनमें और सामान्य गृहस्थ के जीवन में क्या अन्तर रह
SR No.006243
Book TitleJain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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