SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्याय-2 भिक्षाचर्या की उपयोगिता एवं उसके रहस्य जैन मुनि का जीवन विशाल मीनार की भांति उच्चादर्श रूप होता है। दिग्गज विद्वान और धनाढ्य व्यक्ति भी उन सन्त पुरुषों की चरण रज को शीर्ष पर धारण करते हैं तब यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि उन्हें भिक्षार्थ याचना करने की क्या जरूरत है ? इसका सुन्दर समाधान जैनाचार की संहिता बतलाते हुए किया जा सकता है। सबसे पहला पक्ष तो यह है कि सन्त जीवन का आदर्श साधना पर अवलम्बित है न कि दैहिक स्तर पर। दूसरा पक्ष, भिक्षाचर्या स्वावलम्बी जीवन का अभिन्न अंग है। स्वावलम्बी व्यक्ति साधना की चरम स्थिति का स्पर्श कर सकता है। अतः मुनि के लिए भिक्षाटन करना किसी भी पहलू से असंगत नहीं है। तीसरे दृष्टिकोण से भिक्षाचर्या विषयक जो कुछ नियम-उपनियम बतलाये गये हैं वे साधना मार्ग को प्रशस्त एवं सुद्दढ़ करने वाले हैं। इसी के साथ निर्दोष एवं विशुद्ध आहार की सम्प्राप्ति भिक्षाचर्या के माध्यम से ही संभव हैं। आहार का शुद्ध सात्विक होना शरीर, बुद्धि एवं साधना में प्रगति के लिए परमावश्यक है। आहार जीवन निर्माण का पहला तत्त्व है। आहार का जीवन के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। जीवन शरीर पर टिका हुआ है, चारित्र धर्म का पालन शरीर से होता है अतः शरीर निर्वहन हेतु आहार की आवश्यकता रहती है। पांचवाँ हेतु यह माना जा सकता है कि इस चर्या का अनुसरण करने पर मुनि धर्म का उत्तरोत्तर विकास, आहार विजय का अभ्यास एवं समत्त्ववृत्ति का बीजारोपण होता है। साथ ही स्वादिष्ट एवं मनोनुकूल आहार प्रवृत्ति पर अंकुश लग जाता है। परिणामतः वह समत्व का सच्चा योगी भी बन सकता है। इस प्रकार भिक्षाचर्या की आवश्यकता को सिद्ध करने वाले अनेक कारण कहे जा सकते हैं। इस प्रसंग में भिक्षा सम्बन्धी नियमों एवं विधियों की आवश्यकता को भी रेखांकित किया जा सकता है।
SR No.006243
Book TitleJain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy