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________________ 6... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन ___1. द्रव्याभिग्रह चरक- द्रव्यों की मर्यादा का अभिग्रह करके आहार लेना। ___ 2. क्षेत्राभिग्रह चरक - ग्रामादि क्षेत्रों में से किसी एक क्षेत्र का अभिग्रह करके आहार लेना। 3. कालाभिग्रह चरक- दिन के अमुक भाग में आहार लेने का अभिग्रह करना। 4. भावाभिग्रह चरक- अमुक वय या वर्ण वाले से आहार लेने का अभिग्रह करना या अभिग्रह पूर्वक आहार लेना। 5. उत्क्षिप्त चरक- किसी बर्तन में भोजन निकालने वाले के हाथ से आहार लेने का अभिग्रह करना। 6. निक्षिप्त चरक- किसी बर्तन में भोजन डालने वाले से आहार लेने का अभिग्रह करना। ___7. उत्क्षिप्त-निक्षिप्त चरक- किसी एक बर्तन में से भोजन लेकर दूसरे बर्तन में डालने वाले व्यक्ति से आहार लेने का अभिग्रह करना। 8. निक्षिप्त-उत्क्षिप्त चरक- किसी एक बर्तन में निकाले गये भोजन को दूसरे बर्तन में डालने वाले से आहार लेने का अभिग्रह करना। 9. परिवेष्यमाण चरक- किसी के लिए थाली में परोसा हुआ आहार लेने का अभिग्रह करना। 10. संह्रियमाण चरक- थाली में निकाले हुए भोजन को अन्य बर्तन में लेने वाले से आहार लेने का अभिग्रह करना। 11. उपनीत चरक- आहार की प्रशंसा करते हुए देने वाले से आहार लेने का अभिग्रह करना। ___ 12. अपनीत चरक- आहार की निन्दा करते हुए देने वाले से आहार लेने का अभिग्रह करना। __13. उपनीत-अपनीत चरक- जो आहार की पहले प्रशंसा करके बाद में निन्दा करे, उससे आहार लेने का अभिग्रह करना। 14. अपनीत-उपनीत चरक- जो आहार की पहले निन्दा करके बाद में प्रशंसा करे, उससे आहार लेने का अभिग्रह करना। ____ 15. संसृष्ट चरक- लिप्त हाथ, पात्र या चम्मच से आहार लेने का अभिग्रह करना।
SR No.006243
Book TitleJain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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