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________________ जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन...xlvii करता है। ऐसा नवकोटियों से परिशुद्ध आहार ही जैन श्रमण स्वीकार करता है । इसी के साथ उसके उद्देश्य से बना हुआ, सामने लाया हुआ, तनिमित्त खरीदा हुआ, छींके आदि से उतारा गया आदि बयालीस दोष से रहित भिक्षा ग्रहण करता है। यदि भिक्षाटन के सम्बन्ध में विचार किया जाए तो जैन मुनि की भा सामान्य याचकों से सर्वथा भिन्न होती है। सामान्य याचक दीनता या औषधि आदि के प्रयोग दिखाकर भिक्षा प्राप्त करता है जबकि जैन साधु न अपनी दीनता प्रकाशित करता है और न दाता को किसी प्रकार का भय या प्रलोभन दिखाता है। जैन मुनि भिक्षा की याचना नहीं करता अपितु गृहस्थजन उन्हें भिक्षा देने के लिए भाव पूर्वक खड़े रहते हैं। इस सम्बन्ध में यह भी ज्ञातव्य है कि जैन मुनि मात्र पक्व भोजन ही लेता है, किसी प्रकार के धन आदि की याचना नहीं करता है और न उसे देने के लिए दाता को विवश करता है। वह सड़क पर खड़े होकर भी भिक्षा की याचना नहीं करता है बल्कि लोगों के घरों में जाकर यदि उनके द्वार खुले हों और भोजन बना हुआ हो तो ही ग्रहण करता है। इस प्रकार जैन मुनि की भिक्षाचर्या अन्य परम्पराओं की भिक्षावृत्ति से बिल्कुल भिन्न है। सामान्यतया, जिसे भिक्षा समझा जाता है जैन मुनि की भिक्षावृत्ति उससे अलग है। यहाँ यह भी समझ लेना चाहिए कि जैन मुनि भिक्षावृत्ति इसलिए नहीं करते कि उन्हें श्रम नहीं करना पड़े अपितु उनकी भिक्षावृत्ति के पीछे मुख्य कारण यह है कि भोजन के पकाने आदि में जो षट्जीवनिकाय के जीवों की हिंसा होती है, उससे बच सके। दूसरा कारण यह भी कहा गया है कि वह भिक्षा में जैसा भी रूखा-सूखा भोजन मिले, उसमें संतुष्ट रहे। इससे वह किसी तरह के अपराध या दोष का भागी नहीं बनता है अत: जैन मुनि की भिक्षावृत्ति अनेक तथ्यों से महत्त्वपूर्ण है। यहाँ इस प्रश्न का समाधान भी आवश्यक है कि आहार शुद्धि का सम्बन्ध अन्तरंग शुद्धि से कैसे है? वैज्ञानिक अनुसंधान के आधार पर हमारी शारीरिक संरचना का मुख्य केन्द्र हृदय है। हृदय की सक्रियता से हमारी जीवन यात्रा निरन्तर गतिशील रहती है अतः हृदय को स्वस्थ और सक्रिय बनाये रखना परमावश्यक है। जैन विज्ञान एवं चिकित्सा विज्ञान की दृष्टि से हृदय को आहार शुद्धि के आधार पर ही स्वस्थ रखा जा सकता है और आहार की शुद्धता सात्विक, स्वस्थ एवं
SR No.006243
Book TitleJain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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