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________________ 250... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन भूमि पर गिर गया। तब सागर की भांति गंभीर, मेरु की भांति निष्प्रकम्प, वसुधा की भांति सर्वंसह, शंख की भांति राग आदि से निर्लेप, महासुभट की भांति कर्मविदारण में कटिबद्ध मुनि धर्मघोष ने सोचा कि छर्दित दोष वाला आहार मेरे लिए कल्पनीय है अतः बिना भिक्षा लिए वे घर से बाहर निकल गए। मदोन्मत्त हाथी पर बैठे मंत्री वारत्रक ने मुनि को बाहर निकालते हुए देखा तो सोचा कि मुनि ने मेरे घर से भिक्षा क्यों नहीं ग्रहण की ? मंत्री के चिन्तन करते-करते ही उस शर्करा युक्त घी के बिन्दु पर अनेक मक्खियाँ आ गई। उनको खाने के लिए छिपकली आ गई। छिपकली को मारने के लिए शरट आ गया। शरट का भक्षण करने हेतु मार्जारी दौड़ी और उसके वध हेतु प्राघूर्णक कुत्ता दौड़ा। उसे मारने के लिए भी कोई दूसरा श्वान दौड़ा। दोनों कुत्तों में लड़ाई होने लगी। अपने-अपने कुत्ते के पराभव से चिन्तित मन वाले उनके मालिकों में युद्ध छिड़ गया। यह सारा दृश्य अमात्य वारत्रक ने देखा और मन में चिन्तन किया- 'घृत आदि का बिन्दु मात्र भी भूमि पर गिरने से कलह हो गया इसीलिए हिंसा से डरने वाले मुनि ने घृत बिन्दु को भूमि पर देखकर भिक्षा ग्रहण नहीं की । अहो ! भगवान का धर्म बहुत सुदृष्ट है । सर्वज्ञ के अलावा कौन व्यक्ति ऐसे दोष रहित धर्म का उपदेश दे सकता है ?' इस प्रकार चिन्तन करते हुए वह संसार से विमुख चित्त वाला हो गया। सिंह जैसे गिरिकन्दरा से निकलता है, वैसे ही अपने प्रासाद से बाहर निकलकर मंत्री वारत्रक ने धर्मघोष साधु के पास आकर प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। उस महात्मा ने शरीर से अनासक्त रहकर संयमअनुष्ठान एवं स्वाध्याय से भावित अंत:करण से दीर्घकाल तक संयम पर्याय का पालन किया। फिर क्षपक श्रेणी में आरोहण कर घाति कर्मों का समूल नाश करते हुए केवलज्ञान रूपी लक्ष्मी एवं काल क्रम से सिद्धि गति को प्राप्त किया । 32 25. द्रव्य ग्रासैषणा : मत्स्य दृष्टांत एक मच्छीमार मत्स्य को ग्रहण करने के लिए सरोवर के पास गया। सरोवर के निकट जाकर उसने एक मांसपेशी से युक्त जाल सरोवर के बीच में फेंका। उस सरोवर में दक्ष एवं परिणत बुद्धि वाला एक वृद्ध मत्स्य रहता था। कांटे में लगे मांस की सुगंध का भक्षण करने हेतु वृद्ध मत्स्य कांटे के पास गया और यत्ना पूर्वक आस-पास का सारा मांस खा गया। फिर पूंछ से कांटे को दूर कर दिया। मच्छीमार ने सोचा कि मत्स्य जाल में फंस गया है, अतः उसने कांटे
SR No.006243
Book TitleJain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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