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________________ 248... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन तुम धन्य हो। इन बाल ब्रह्मचारी यतियों ने तुमको पवित्र कर दिया है लेकिन तुम्हारे उच्छिष्ट भोजन से ये अपवित्र हो गए हैं।' चाणक्य ने क्षुल्लकद्वय को वंदना करके भेज दिया। ___रात्रि में चाणक्य आचार्य के पास गया और आचार्य को उपालम्भ देते हुए कहा- 'ये तुम्हारे दोनों क्षुल्लक प्रवचन की अप्रभावना कर रहे हैं।' तब आचार्य ने चाणक्य को उपालम्भ देते हुए कहा-'इसके लिए तुम ही अपराधी हो क्योंकि श्रावक होते हुए भी तुम दोनों क्षुल्लकों के जीवन-निर्वाह की चिन्ता नहीं करते हो। इस दुर्भिक्ष काल में साधु का जीवन भलीभांति कैसे चल सकता है, क्या तुमने इसके बारे में कभी सोचा?' 'भगवन्! आपका कथन सत्य है' ऐसा कहते हुए चाणक्य उनके पैरों मे गिर पड़ा और क्षमायाचना की। इसके बाद चाणक्य ने सकल संघ की भिक्षा हेतु यथायोग्य चिन्ता की।27 22. योग प्रयोग : कुलपति एवं आर्य समित कथानक अचलपुर28 नामक नगर के पास कृष्णा और वेन्ना नामक दो नदियाँ थीं। दोनों नदियों के बीच ब्रह्मा नामक द्वीप था। वहाँ पाँच सौ तापसों के साथ देवशर्मा नामक कुलपति निवास करता था। वह संक्रांति आदि पर्व दिनों में अपने तीर्थ की प्रभावना के लिए सब तापसों के साथ पाद लेप करके कृष्णा नदी पर पैरों से चलकर अचलपुर जाता था। लोग उसके इस अतिशय को देखकर विस्मित हो जाते और विशेष रूप से भोजन आदि द्वारा सत्कार करते थे। लोग साधुओं की निंदा करते हुए श्रावकों को कहते थे-'तुम लोगों के पास ऐसी शक्ति नहीं हो सकती।' श्रावकों ने यह बात वज्रस्वामी के मामा आचार्य समित को बताई। उन्होंने चिन्तन करके श्रावकों से कहा- 'यह कुलपति माया पूर्वक पादलेप करके नदी पार करता है, तप-शक्ति के प्रभाव से नहीं। यदि गर्म जल से उसके पैर धो दिए जाएं तो वह नदी पार नहीं कर सकेगा।' तब श्रावकों ने उसकी माया को प्रकट करने के लिए कुलपति को सपरिवार भोजन के लिए आमंत्रित किया। भोजन-वेला में कुलपति वहाँ पहुँचा। श्रावकों ने उसका पादप्रक्षालन करना प्रारंभ किया लेकिन पाद-लेप दूर होने के भय से उसने पैरों को आगे नहीं किया। तब श्रावकों ने कहा- 'बिना पाद-प्रक्षालन किए आपको भोजन करवाने से हमको अविनय दोष लगेगा। विनय पूर्वक दिया गया दान अधिक फलदायी होता है।' श्रावकों ने बल पूर्वक पैर आगे करके उनको प्रक्षालित कर
SR No.006243
Book TitleJain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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