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________________ आहार सम्बन्धी 47 दोषों की कथाएँ... 231 है।' क्षेमंकर मुनि ने जिनप्रणीत धर्म का विस्तार से प्ररूपण किया। सबको वैराग्य पैदा हो गया। मुनि ने सबको दीक्षा प्रदान कर दी। 7. अभ्याहृत दोष : मोदक दृष्टांत किसी गाँव में धनावह आदि अनेक श्रावक तथा धनवती आदि अनेक श्राविकाएँ रहती थी। वे सब एक कुटुम्ब से सम्बन्धित थे। एक बार उनके यहाँ किसी का विवाह था। विवाह सम्पन्न होने पर अनेक मोदक बच गए। उन लोगों ने सोचा कि मोदक साधु को भिक्षा में देने चाहिए, जिससे हमको बड़े पुण्य की प्राप्ति होगी। कुछ साधु दूर हैं, कुछ पास है, लेकिन बीच में नदी है । वे अप्काय की विराधना के भय से यहाँ नहीं आयेंगे। आ भी जायेंगे तो प्रचुर मोदकों को देखकर उन्हें आधाकर्म की शंका हो जाएगी अतः वे इनको ग्रहण नहीं करेंगे। इसलिए जिस गाँव में साधु रहते हैं वहीं प्रच्छन्न रूप से मोदक ले जायेंगे । उन्होंने वैसा ही किया। वहाँ जाने पर पुनः उन्होंने चिन्तन किया कि यदि साधु को बुलाकर दूंगा तो वह अशुद्ध की आशंका से ग्रहण नहीं करेंगे अतः कुछ मोदक ब्राह्मण आदि को भी देना चाहिए। यदि साधु ब्राह्मण आदि को देते हुए नहीं देखेंगे तो उनको अशुद्ध की आशंका हो जाएगी। साधु जिस मार्ग से पंचमी समिति (उच्चार आदि के लिए) जाते हैं, उस मार्ग में देने से साधु उसे देखेंगे। इस प्रकार चिन्तन करके उन्होंने किसी देवकुल के बहिर्भाग में द्विज आदि को थोड़े-थोड़े मोदक देने प्रारंभ कर दिए। उच्चार आदि के लिए निकले साधुओं ने उन्हें ब्राह्मणों को दान देते देखा। श्रावकों ने उनको निमंत्रित करते हुए कहा - 'हमारे यहाँ प्रचुर मात्रा में मोदक बच गए हैं, आप इन्हें ग्रहण करें।' साधुओं ने शुद्ध जानकर लड्डु ग्रहण कर लिए। उन साधुओं ने शेष साधुओं को भी कहा कि अमुक स्थान पर प्रचुर एषणीय मोदक आदि उपलब्ध हैं। तब वे भी उसे ग्रहण करने हेतु वहाँ गए । कुछ श्रावकों ने उन्हें प्रचुर मात्रा में मोदक आदि दिए। कुछ ने माया पूर्वक उन्हें रोकते हुए कहा- 'इनको इतने ही मोदक दो, अधिक नहीं। शेष हमारे भोजन के लिए चाहिए।' कुछ श्रावक पुनः उन्हें रोकते हुए कहने लगे- हम सब लोगों ने खा लिए अतः कोई भी नहीं खाएगा। साधु को यथेच्छ मात्रा में दो, शेष थोड़ा बचने से भी कार्य हो जाएगा।' जिन साधुओं को नवकारसी का प्रत्याख्यान था, उन्होंने मोदक खा लिए। जिनके पोरसी थी, वे खा रहे थे तथा जिन साधुओं के अजीर्ण आदि था, वे दिन के पूर्वार्द्ध की प्रतीक्षा कर रहे थे । उन्होंने कुछ नहीं खाया था।
SR No.006243
Book TitleJain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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