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________________ 228... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन के कारण साधु उसको पहचान नहीं सके। शुद्ध आहार समझकर उन्होंने दूध, घी आदि ग्रहण कर लिया। इस प्रकार क्रीत आहार ग्रहण करते हुए भी साधु दोष के भागी नहीं हुए क्योंकि उन्होंने यथाशक्ति भगवान की आज्ञा की आराधना की थी। 5. लौकिक प्रामित्य : भगिनी दृष्टांत कौशल जनपद के किसी गाँव में देवराज नामक कौटम्बिक रहता था। उसकी पत्नी का नाम सारिका था। उसके सम्मत आदि अनेक पुत्र तथा सम्मति आदि अनेक पुत्रियाँ थीं। पूरा कुटुम्ब अत्यन्त धार्मिक था। उसी गाँव में शिवदेव नाम का श्रेष्ठी और उसकी पत्नी शिवा रहती थी। एक बार उस गाँव में समुद्रघोष नामक आचार्य आए। आचार्य के मुख से जिनप्रणीत धर्म को सुनकर सम्मत के मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया और उसने दीक्षा ग्रहण कर ली। गुरु की कृपा से वह बहुश्रुत बन गया। एक बार उसके मन में चिन्तन उभरा कि यदि मेरा कोई स्वजन दीक्षा ले तो अच्छा रहेगा। यही वास्तविक उपकार है कि व्यक्ति को संसार-सागर से पार किया जाए। ऐसा सोचकर गुरु से पूछकर वह अपने बंधु के ग्राम में आया। गाँव के बाहर उसने किसी वृद्ध व्यक्ति से पूछा कि यहाँ देवराज नामक कौटुम्बिक के परिवार वाले कोई व्यक्ति रहते हैं क्या? वृद्ध ने उत्तर दिया- उस परिवार के सब व्यक्ति मृत्यु को प्राप्त हो गए हैं, केवल सम्मति नामक विधवा पुत्री जीवित है।' ऐसा सुनकर साधु उसके घर गया। भाई को आते देखकर वह मन में बहुत प्रसन्न हुई। आदर पूर्वक वंदना, भक्ति और पर्युपासना करके वह उनके निमित्त आहार बनाने के लिए उपस्थित हुई। साधु ने उसको रोकते हुए कहा-'हमारे निमित्त बनाया हुआ आहार अकल्पनीय है।' गरीबी के कारण भिक्षा वेला में उसको कहीं भी तेल की प्राप्ति नहीं हुई। आखिर किसी भी प्रकार शिवदेव नामक वणिक् की दुकान से वह दो पलिका तेल प्रतिदिन दुगुने ब्याज की वृद्धि के आधार पर उधार लेकर आई। भाई मुनि को वह वृत्तान्त ज्ञात नहीं था अत: उन्होंने शुद्ध समझकर उसे ग्रहण कर लिया। उस दिन भ्राता साधु से प्रवचन सुनने में व्यस्त रहने के कारण वह पानी लाकर दो पलिका तेल का ब्याज नहीं उतार सकी। दूसरे दिन भाई का विहार होने से उसके वियोग में वह उस तेल के ब्याज की पूर्ति नहीं कर सकी। तीसरे दिन उसका
SR No.006243
Book TitleJain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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