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________________ 204... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन है। आठवें क्रीत नामक दोष को नौवाँ स्थान दिया गया है। नौवें प्रामित्य नामक दोष को 10वाँ स्थान दिया गया है। 10वें परिवर्तित नामक दोष को 11वाँ स्थान दिया गया है। 11वें अभ्याहृत दोष को अनगार धर्मामृत में 13वाँ स्थान दिया गया है। 12वें उदिभन्न नामक दोष को अनगार धर्मामृत में 14वाँ और मूलाचार में 13वाँ स्थान दिया है। 13वें मालापहृत दोष को अनगार धर्मामृत में 16वाँ और मूलाचार में 14वाँ स्थान दिया गया है। 14वें आच्छेद्य नामक दोष को 15वाँ स्थान प्राप्त है। 15वें अनिसृष्ट नामक दोष को मूलाचार में 16वाँ स्थान दिया गया है। 16वाँ अध्यवपूरक नाम का दोष दिगम्बर परम्परा में मान्य नहीं है। स्वरूप वैभिन्य- श्वेताम्बर परम्परा के पिण्डनियुक्ति में औद्देशिक का अर्थ साधु के उद्देश्य से बनाया गया भोजन ऐसा किया है जबकि अनगार धर्मामृत में इसका अर्थ करते हुए कहा है-जो भोजन नाग, यक्ष आदि देवता, दीनजनों और अन्य लिंगधारी साधुओं के उद्देश से अथवा सभी प्रकार के पाखंडी, पार्श्वस्थ आदि के उद्देश से बनाया गया हो वह औद्देशिक है।32 दिगम्बर परम्परा में उद्गम का दूसरा दोष ‘साधिक' नाम का माना है। इसका अर्थ है- अन्न पकने तक पूजा या धर्म सम्बन्धी प्रश्नों के बहाने से साधु को रोके रखना, उसके बाद वह आहार प्रदान करना साधिक कहलाता है।33 दोनों परम्पराओं में मिश्र नामक दोष को चौथा स्थान दिया गया है परन्त स्वरूप की दृष्टि से देखें तो पिण्डनियुक्ति आदि में गृहस्थ के लिए बन रहे आहार में साधु को बहराने के निमित्त पीछे से मिलाया गया भोजन मिश्र दोष वाला बतलाया है किन्तु दिगम्बर के मूलाचार आदि में पाखण्डी, गृहस्थ एवं यतियों के निमित्त बनाये गये भोजन को मिश्र दोष वाला कहा गया है।34 दिगम्बर परम्परा में उद्गम का छठवाँ दोष 'बलि' माना गया है और सातवाँ 'न्यस्त' माना गया है। जो आहार यक्ष, नाग, कुल, देवता, पितर आदि के लिए बनाया गया हो उसका बचा हुआ खाद्यांश साधु को बहराना बलि दोष है तथा भोजन पकाने के पात्र से अन्य पात्र में निकालकर अन्यत्र रखा गया आहार का दान करना न्यस्त दोष है। दिगम्बर परम्परा के अनगार धर्मामृत में 12वाँ दोष 'निषिद्ध' नाम का है। इसका अर्थघटन करते हुए लिखा गया है कि व्यक्त, अव्यक्त और उभय रूप स्वामी के द्वारा प्रतिबद्ध वस्तु साधु को प्रदान करना निषिद्ध दोष कहलाता है।
SR No.006243
Book TitleJain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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