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________________ अमृत नाद 'शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम्'- विद्वत् मनीषियों ने शरीर को धर्म का प्रमुख साधन कहा है। श्रमण धर्म का आचरण शरीर से होता है और शरीर निर्वाह के लिए आहार की आवश्यकता रहती है अत: साधना के लिए देहरक्षण अनिवार्य है। जैन श्रमण जीवन निर्वाह के लिए भिक्षाचर्या का आलम्बन लेते हैं परंतु उनकी भिक्षाविधि सामान्य भिक्षकों से अलग होती है। अनेक नियम-उपनियमों का पालन करते हुए मुनि निर्दोष आहार की गवेषणा एक मधुकर या गाय के समान करते हैं, इसी कारण उनकी भिक्षाविधि माधुकरी वृत्ति या गोचरचर्या भी कहलाती हैं। वे बिना किसी भेदभाव के निर्दोष एवं सात्त्विक आहार प्राप्त करने का प्रयत्न भी समभाव अवस्था में करते हैं। न अनुकूल प्रसंगों में हर्ष न प्रतिकूलता में विषाद। मिले तो उदर पूर्ति और न मिले तो तप में वृद्धि की भावना करते हुए सदैव आत्मानंद में ही मग्न रहते हैं। इसी कारण जैन मुनि की भिक्षाचर्या विशिष्ट होती है। शोध प्रबन्ध के इस षष्ठम खण्ड में जैन मुनि की भिक्षाचर्या एवं तद्विषयक विधि-नियमों का सांगोपांग स्वरूप प्रस्तुत किया गया है। श्रमण संघ में विशेषत: नूतन दीक्षित एवं ज्ञान पिपासुओं के लिए इस तरह की कृति बहुउपयोगी सिद्ध होगी। सुयोग्या सौम्यगुणाजी ने भिक्षाचर्या के क्षेत्र में स्तुत्य कार्य किया है अत: सभी के लिए साधुवाद की पात्री हैं। मेरा अन्तराशीष है कि वह विधि प्रभा के उपनाम को सार्थक करती हुई इस दिशा में नवोन्मेष का दीप प्रज्वलित करती रहें। अभ्युदय कांक्षिणी आर्या शशिप्रभा श्री
SR No.006243
Book TitleJain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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