SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 247
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भिक्षाचर्या की विधि एवं उपविधियाँ ...183 सकता है। आहार करते समय प्रत्येक साधु के पास एक श्लेष्म का और दूसरा आहार में निकलने वाले कांटे, कंकर या मृत कलेवर आदि अखाद्य वस्तुएँ प्रक्षेपित करने का इस तरह दो कटोरे होने चाहिए। मंडली के बाह्य भाग में कोई गृहस्थ आकर खड़े न हो जाएं। इसलिए उपवासी साध को मंडली के बाहर बिठाये रखें ताकि गृहस्थ अन्दर न आ सके क्योंकि श्रमण को गुप्त आहार करने की जिनाज्ञा है। आहार पात्र तीन प्रकार के होते हैं (i) यथाजात- गृहस्थ द्वारा प्राप्त करने के बाद जिसे संस्कारित न करना पड़े और जो सुगमता से उपयोग में आ सके, वह यथाजात पात्र कहलाता है। (ii) अल्पपरिकर्म- जिसे गृहस्थ से लेने के बाद जिसके ऊपर अल्प रंग आदि करके ही उपयोग में लिया जा सके, वह अल्प परिकर्म वाला पात्र कहलाता है। ____(iii) बहुपरिकर्म- गृहस्थ से प्राप्त करने के पश्चात जिस पात्र पर जोड़ना, रंगना आदि बहुत सी क्रियाएँ करनी पड़े और उसके बाद ही उपयोग में लिया जा सके, वह बहुपरिकर्म वाला पात्र कहलाता है। यहाँ पात्रों के उल्लेख करने का हेतु यह है कि आहार देते समय पहले यथाजात पात्र में रही हुई भिक्षा प्रदान करें। वह पूर्ण होने के पश्चात अल्पपरिकर्म वाले पात्र में लायी गई भिक्षा प्रदान करें। इस क्रम के पीछे संयम और भावना शुद्धि का ध्येय मुख्य रूप से रहा हुआ है। 3. भोजन- मुनि आहार करते समय सबसे पहले स्निग्ध और मधुर रस वाले दूधपाक-खीर आदि द्रव्यों का भोजन करे, क्योंकि इससे पित्त- वायु आदि विकारों की शान्ति और बल-बुद्धि आदि की वृद्धि होती है। इसके पश्चात आम्ल आदि रस वाले द्रव्यों का भोजन करें क्योंकि स्निग्ध और मधुर द्रव्यों को बाद में खाने से कदाच अधिक हो जाये तो उसका परिष्ठापन करने में अनेक दोष लगते हैं जैसे घृत आदि को परठने से अधिक जीव हिंसा होती है। इसलिए स्निग्ध और मधुर द्रव्यों का भोजन सबसे पहले करें। यदि स्निग्धादि द्रव्य अल्प परिकर्म या बहु परिकर्म वाले पात्रों में हो तब भी पहले स्निग्ध आदि द्रव्यों का ही भोजन करें, फिर हाथ-मुख आदि स्वच्छ करके यथाजात पात्र का आहार ग्रहण करें।26
SR No.006243
Book TitleJain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy