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________________ अध्याय-5 भिक्षाचर्या की विधि एवं उपविधियाँ आहार शरीर की मूलभूत आवश्यकता है। तीन प्रकार के आहारों में से संसारी जीव प्रति समय कोई न कोई आहार ग्रहण करता रहता है। रोमाहार और ओजाहार एक स्वसंचालित (Automatic) क्रिया है जबकि कवलाहार के लिए जीव को प्रयास करना पड़ता है। संत साधक भी शरीर को साधना में सहयोगी रखने हेत आहार की गवेषणा करते हैं। साधु के द्वारा कैसा आहार ग्रहण किया जाए? आहार प्राप्ति के लिए मुनि किस प्रकार गमन करें? शुद्ध आहार की प्राप्ति कैसे की जाए? आहार ग्रहण में लगे दोषों की आलोचना कितनी बार करें? आदि विषय उल्लेखनीय हैं। प्रस्तुत अध्याय में इन्हीं भिक्षा विधियों का निरूपण किया जा रहा है। भिक्षागमन से पूर्व करने की विधि __ आचार्य हरिभद्रसूरि के निर्देशानुसार जब भिक्षाकाल समुपस्थित हो जाये तब भिक्षाटन करने वाला मुनि सर्वप्रथम शारीरिक आवश्यक क्रियाओं से निवृत्त बने। फिर पात्र और मात्रक इन दो उपकरणों और डंडे को लेकर गुरु के समीप खड़ा हो जाये। तत्पश्चात चित्त की एकाग्रता पूर्वक गुर्वानुमति लेते हुए उपयोग क्रिया करे। उपयोग (सजग रहने) की विधि यह है भिक्षाटन करने वाला शिष्य गुरु से कहे- 'संदिसह उवओगं करेमो' मुझे आदेश दीजिये- मैं उपयोग करूं यानी सजग रहूं। तब गुरु 'करेह' ऐसा कहकर आज्ञा दें। फिर शिष्य एक खमासमण देकर 'उवओग करावणि करेमि काउसग्गं' पूर्वक अन्नत्थसूत्र बोलकर कायोत्सर्ग करें। कायोत्सर्ग में एक नमस्कार महामंत्र का चिंतन करे। - आचार्य हरिभद्रसूरि ने उपयोग के निमित्त किए जाने वाले कायोत्सर्ग के सम्बन्ध में दो मतान्तर बतलाए हैं। एक मत के अनुसार इस कायोत्सर्ग में नमस्कार मंत्र के स्मरण पूर्वक जिस तरह का आहार आदि लाना हो उसका भी चिन्तन करें, क्योंकि भिक्षाचर्या के पूर्व इस विषयक विचार किए बिना कुछ भी
SR No.006243
Book TitleJain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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