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________________ 146... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन ___ (i) द्रव्य विषयक अपरिणत- यह दोष षट्काय से सम्बन्धित होने के कारण छह प्रकार का होता है। उदाहरण स्वरूप लवण जब तक सजीव है, तब तक अपरिणत है और जीव रहित होने के बाद वह परिणत कहलाता है। इसी तरह अप्काय आदि को जानना चाहिए।235 (ii) भाव विषयक अपरिणत- जो वस्तु दो या अधिक व्यक्तियों से सम्बन्धित है, उसमें एक व्यक्ति साधु को देने की इच्छा रखता हो और दूसरे की इच्छा न हो तो वह दाता सम्बन्धी भावत: अपरिणत है। इसी प्रकार भिक्षार्थ गए दो मुनियों में एक मुनि ने देय वस्तु को एषणीय माना और दूसरे ने एषणीय नहीं माना, वह ग्राहक सम्बन्धी भावत: अपरिणत है अत: अकल्प्य है।236 टीकाकार मलयगिरि ने अनिसृष्ट और दातृभाव से अपरिणत का अंतर स्पष्ट करते हुए कहा है कि अनिसृष्ट में सामान्यत: दाता परोक्ष होता है लेकिन दातृभाव से अपरिणत में दाता समक्ष होता है। भिक्षा देने की असहमति दोनों की होती है।237 9. लिप्त (संसक्त) दोष कच्चा दूध, दही आदि लेपकृत द्रव्य लेना लिप्त दोष कहलाता है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार हरताल, खड़िया, मेनसिल, गीला आटा, अपक्व चावल आदि से लिप्त हाथ या पात्र द्वारा भिक्षा देना लिप्त दोष है।238 नियमत: मुनि को अलेपकृत आहार ग्रहण करना चहिए, इससे रसवृद्धि का प्रसंग नहीं आता है। परिणाम- लेपकृत आहार लेने पर रस लोलुपता, पश्चात्कर्म आदि दोष लगते हैं। दही आदि से लिप्त हाथों को सचित्त जल से धोया जाए तो अप्कायिक जीवों की विराधना भी होती है। __अपवाद- उत्सर्गत: जैन साधु के लिए वाल, चना, भात आदि अलेपकृत भिक्षा ही निर्दोष है, किन्तु स्वाध्याय आदि पुष्ट कारणों से लेपकृत भिक्षा भी ली जा सकती है। 10. छर्दित (झरता हुआ) दोष देय वस्तु को नीचे गिराते हुए देना अथवा जिसकी रसधार नीचे टपक रही हो, ऐसा पदार्थ भिक्षा रूप में प्रदान करना या ग्रहण करना, छर्दित दोष है।
SR No.006243
Book TitleJain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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