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________________ 104... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन इन दोनों के भी दो-दो अवान्तर भेद हैं- अवष्वष्कण (अवसर्पण) तथा उत्प्वष्कण (उत्सर्पण)। निर्धारित समय के बाद आरंभ-समारंभ द्वारा बनाया गया भोजन मुनि को प्रदान करना उत्ष्वष्कण प्राभृतिका दोष है। निर्धारित समय से पूर्व आरम्भा-समारंभ द्वारा बनाया गया भोजन देना अवष्वष्कण प्राभृतिका दोष है।70 इनके भी बादर और सूक्ष्म दो-दो भेद इस प्रकार हैं बादर अवष्वष्कण प्राभृतिका- साधु के आने की जानकारी होने पर निर्धारित समय से पूर्व विवाह करना, जिससे साधु को भिक्षा दी जा सके, यह बादर अवष्वष्कण या बादर अवसर्पण प्राभृतिका दोष है।71 सूक्ष्म अवष्वष्कण प्राभृतिका- माँ ने बालक को कहा कि अभी मैं रुई आदि कातने में व्यस्त हँ अत: बाद में भोजन दंगी। इसी बीच किसी साधु का आगमन होने से उनके साथ बालक को भी पहले भोजन दे देना, सूक्ष्म अवष्वष्कण या सूक्ष्म अवसर्पण प्राभृतिका है।72 बादर उत्ष्वष्कण प्राभृतिका - साधुओं को आहार देने से सुपात्र दान का लाभ मिलेगा, इस अपेक्षा से पुत्र आदि के विवाह की तिथि निर्धारित समय से कुछ बाद में करना, बादर उत्ष्वष्कण प्राभृतिका दोष है।73 । सूक्ष्म उत्ष्वष्कण प्राभृतिका - यदि सूत कात रही स्त्री से उसका बालक खाने की वस्तु मांग रहा हो, उस समय वह मुनि को आहारार्थ आए हुए देख लें और बालक को यह कहें कि मुनि भगवन्त पधार रहे हैं, तब उठने पर दूंगी। इस तरह मुनि को आहार देने के निमित्त बालक को कुछ विलम्ब से खाद्यान्न देना, सूक्ष्म उत्ष्वष्कण प्राभृतिका है।74 __आचार्य वट्टकेर ने काल की वृद्धि-हानि के अनुसार दिवस, पक्ष, महीना, वर्ष आदि का परावर्तन करके आहार देना बादर प्राभृतिका तथा पूर्वाह्न, अपराह्न या मध्याह्न में दिए जाने वाले आहार को सूक्ष्म प्राभृतिका दोष माना है।75_ परिणाम- पिण्ड नियुक्तिकार के अनुसार जो मुनि प्राभृतिका दोष युक्त आहार का सेवन करने के पश्चात उसका प्रतिक्रमण नहीं करता, वह मुण्ड मुनि विलुप्त पंख वाले कपोत की भाँति संसार में परिभ्रमण करता रहता है। दिगम्बर आचार्य वसुनंदी के अनुसार इस दोष युक्त भिक्षा ग्रहण करने से क्लेश, बहुविघ्न तथा आरंभ-हिंसा आदि दोष उत्पन्न होते हैं। प्राभृतिका आहार सेवी साधु आचार से शिथिल एवं संयम से दूषित भी होता है।7
SR No.006243
Book TitleJain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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