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________________ 94... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन के प्रसंग को बढ़ावा देता है। जब एक मुनि किसी को आधाकर्म आहार ग्रहण करते हु देखता है तो उसके आलम्बन से दूसरा मुनि भी आधा ग्रहण करने लगता है। उसे देखकर अन्य मुनि भी आधाकर्मी आहार ग्रहण में प्रवृत्त हो सकते हैं। इस प्रकार दोष बहुल मुनियों की परम्परा बढ़ने से संयम और तप का विच्छेद होता है इससे तीर्थ का विच्छेद हो जाता है। तीर्थ का लोप करने वाला महान आशातना का भागी होता है । 18 आधाकर्म ग्रहण का तीसरा दोष है मिथ्यात्व की प्राप्ति । देश, काल और संहनन के अनुरूप अपनी शक्ति का गोपन नहीं करते हुए आगमोक्त विधि का पालन नहीं करने वाला साधु दूसरों में शंका उत्पन्न करने के कारण महामिथ्यादृष्टि वाला होता है। उसे देखकर अन्य साधु सोचते हैं कि यह तत्त्व को जानते हुए भी आधाकर्म आहार ग्रहण करता है, तब जिनवाणी में कही गई बात मिथ्या होनी चाहिए। इस प्रकार शंका उत्पन्न होने पर वह मिथ्यात्व की परम्परा को आगे बढ़ाता है । 19 इसके अतिरिक्त आधाकर्मी आहार करने वाला मुनि स्वयं में और दूसरों में आसक्ति को बढ़ावा देता हुआ सजीव पदार्थों को खाने में भी संकोच का अनुभव नहीं करता। आधाकर्मी आहार लेने का चौथा दोष है विराधना । अत्यधिक मात्रा में स्निग्ध आहार करने से मुनि रुग्ण हो जाता है। रोग होने से उसकी एवं प्रतिचारकों की सूत्र और अर्थ की हानि होती है । रोग चिकित्सा में षट्काय की हिंसा होती है। प्रतिचारकों द्वारा अच्छी तरह सेवा न होने पर वह स्वयं क्लेश का अनुभव करता है तथा परिचारकों पर क्रोधित होने के कारण उनके मन में भी संक्लेश उत्पन्न करता है। इस प्रकार वह आत्म विराधना और संयम विराधना को प्राप्त करता है | 20 पिण्डनिर्युक्ति में यह भी वर्णित है कि जैसे सुसंस्कृत भोजन का वमन हो जाने पर वह भोजन अभोज्य बन जाता है वैसे ही आधाकर्मी भोजन मुनि के लिए अनेषणीय और अभोज्य हो जाता है। 21 इसमें प्रकारान्तर से लौकिक उदाहरण देते हुए यह कहा गया है कि जैसे वेद आदि धार्मिक ग्रन्थों के अनुसार भेड़ी - ऊँटनी का दूध, लहसुन, प्याज, सुरा और गोमांस आदि वस्तुएँ अखाद्य हैं वैसे ही जिनशासन में आधाकर्मी आहार अग्राह्य है। 22
SR No.006243
Book TitleJain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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