SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 138
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 74... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन इस निषेध का एक अर्थ यह भी है कि राजा के लिए बनाया गया आहार नहीं लेना चाहिए, अन्य सदस्यों के लिए बनाया गया आहार मुनि ले सकता है। गोदोहन सम्बन्धी काल का निषेध- जैन श्रमण-श्रमणी अहिंसा व्रत का बहुत ही सूक्ष्मता से पालन करते हैं। अतएव वे अपने निमित्त से किसी भी जीव को जरा भी पीड़ा न हो, इस बात की पूरी सावधानी रखते हैं। इसी उद्देश्य से यह विधान बनाया गया कि जब दुधारु गायें दुही जा रही हों, आहारादि तैयार किया जा रहा हो और अभी तक उस आहार में से पहले किसी को न दिया गया हो तो ऐसे समय में मनि आहार के लिए गृहस्थ के घरों में प्रवेश न करें और वसति स्थान से भी बाहर न निकलें।42 दोष- गोदोहन काल में भिक्षार्थ निषेध का स्पष्टीकरण करते हुए टीकाकार कहते हैं कि यदि साधु-साध्वी गोदोहन वेला में गृहस्थ के घरों में प्रवेश करें तो यह संभव है कि उन्हें देखकर गाय भड़क जाये जिससे संयम और आत्मा दोनों की विराधना हो सकती है अथवा दुहने वाले व्यक्ति को भी चोट लग सकती है। मुनि को आते हुए देखकर गाय को शीघ्रता से दुही जाये तो उसे भी पीड़ा हो सकती है अथवा भावनाशील गृहस्थ मुनि को लक्ष्य में रखते हुए गाय के स्तनों में से अधिक दूध निकाल ले तो बछड़े को अन्तराय हो सकती है। वर्तमान युग में इस नियम की प्रासंगिकता ग्रामीण इलाकों में रह गई है। शहरी परिवेश में देरी से उठने, Bed Tea पीने आदि की अपेक्षा भी इस नियम की सार्थकता सिद्ध होती है। क्योंकि देरी से उठने के कारण प्राय: दरवाजे बन्द मिलते हैं अथवा उठते साथ ही अप्रीति के भाव उत्पन्न हो सकते हैं कि इन साधुओं को स्वयं को तो कुछ काम है नहीं लेकिन हमें तो संसार के सभी काम धन्धे हैं। सब कुछ समय पर हो जाये यह मुश्किल है। Bed Tea पीने वालों को विक्षेप हो जाये तो जैन धर्म की हीलना का प्रसंग भी आ सकता है। . इसी तरह जब आहार तैयार हो रहा हो उस समय कोई साधु गृहस्थ के घर पहुँच जाए तो गृहस्थ अर्धपक्व आहार को शीघ्र पकाने की दृष्टि से चूल्हे में अधिक ईंधन डाल सकता है इससे अग्निकाय जीवों की विराधना होती है और संयम भी दूषित होता है। इसी तरह निर्मित आहार में से यदि पहले किसी को न दिया गया हो तो संभव है कि श्रद्धालु गृहस्थ साधु को अधिक भोजन भी दे दें तो इससे दूसरों को अन्तराय लग सकती है। भोजन बन ही रहा है ऐसा
SR No.006243
Book TitleJain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy