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________________ वर्तमान युग में भिक्षाचर्या का औचित्य एवं उसके नियमोपनियम ... 53 तो उसके टुकड़ें करवा कर देखें। यदि ऐसा नहीं करें तो कदाच दाता ने साधु के प्रति रोष आदि होने के कारण उसमें रत्न- अंगूठी आदि रखी हो तो उसे अखंड लेने पर साधु के ऊपर चोरी का कलंक आ सकता है और राजदंड आदि भी हो सकता है अथवा उसको खाने से आत्म विराधना भी हो सकती है। अतः दी जा रही वस्तु को भलीभांति देखकर ही ग्रहण करना चाहिए । 9. गुरुक – गृहस्थ के आहार देने का पात्र या उसके ऊपर का ढक्कन आदि बहुत भारी हो तो वह गुरुक कहलाता है। मुनि इस तरह के भारी पात्र से आहार ग्रहण नहीं करे परन्तु आसानी से दिया जा सके ऐसे पात्र से भिक्षा लें। भारी पात्र से आहार लेने पर उसे उठाने या रखने में उस पात्र के गिरने की आशंका रहती है यदि गिर जाये तो दाता या साधु को चोट पहुँच सकती है। 10. त्रिधा - भिक्षार्थी मुनि तीन प्रकार के काल और दाता का ध्यान रखें। इसमें ग्रीष्म, हेमन्त और वर्षा ऋतु ये तीन प्रकार के काल होते हैं और स्त्री, पुरुष और नपुंसक ऐसे दाता भी तीन प्रकार के होते हैं। उसमें स्त्री उष्ण, पुरुष मध्यम एवं नपुंसक शीतल जानना चाहिए। इन दाताओं के हाथ से किन स्थितियों में भिक्षा ली जा सकती है या नहीं ली जा सकती है, इसका ध्यान रखें। 11. भाव आहार दाता के अध्यवसायों का निरीक्षण करें। यदि वह प्रशस्त भाव पूर्वक भिक्षा दे रहा हो तो उसे ग्रहण करें। उपेक्षा पूर्वक दी जाने वाली भिक्षा ग्रहण नहीं करें। इस तरह भिक्षाग्राही मुनि को इन ग्यारह मर्यादाओं का विधियुक्त परिपालन करना चाहिए। ओघनियुक्ति में भिक्षाचर्या से सम्बन्धित अष्टविध मर्यादाओं का सूचन भी किया गया है। 17 - 1. परिमाण – जैन मुनि की भिक्षाचर्या सम्बन्धी पहली मर्यादा यह है कि वह गृहस्थ के घर भिक्षा हेतु दो बार ही जाएं। एक बार मलादि की शंका होने पर अपान स्थान की शुद्धि हेतु पानी के लिए जाएं और दूसरी बार भिक्षार्थ जाएं। इसके अतिरिक्त तीसरी बार गृहस्थ के घर जाने का विधान नहीं है। तदुपरान्त कोई मुनि रुग्ण हो जाये तो उपचारार्थ अनेक बार जाने की भी मर्यादा है, किन्तु वह मूलतः अपवाद मार्ग ही है। पाँचवें महाव्रत में 'संनिधि' नामक दोष न लग जाये इस उद्देश्य से प्राचीन काल में तथा वर्तमान में स्थानकवासी परम्परा के कुछ मुनि रात्रि में पानी नहीं
SR No.006243
Book TitleJain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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