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________________ 42... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन आहार का सेवन कर लेता है तो वह रसलोलुपी वृत्ति के कारण प्रगाढ़ पाप बन्ध करता है और निर्वाण पथ से दूर हो जाता है। कदाचित कोई मनि विविध प्रकार के भोजन और पानी को प्राप्त कर उनमें से सरस और स्वादिष्ट आहार कहीं एकान्त में बैठकर कर ले तथा विवर्ण और विरस आहार को स्थान पर ले आए तो द्रव्य-भाव संयुक्त अविवेक होता है।12 अविवेक पाप कर्मों का प्रतिबंधक है, अत: मोक्षाभिलाषी मुनि विवेक का दीप प्रज्वलित रखते हुए संयम धर्म का संपोषण करें। आहार दान का अधिकारी कौन? दिगम्बर साहित्य के अनुसार निम्न गुणों से युक्त गृहस्थ आहार दान का अधिकारी माना गया है 1. जो गृहस्थ प्रतिदिन देव दर्शन करने वाला, रात्रिभोजन एवं सप्त व्यसनों का त्यागी और सच्चे देव, गुरु, धर्म के प्रति श्रद्धा रखने वाला हो। 2. जिनकी आय का स्रोत हिंसात्मक एवं अनुचित न हो यानी शराब का ठेका, जुआ, सट्टा खिलाना, कीटनाशक दवाएँ, नशीली वस्तु के व्यापार का परित्यागी हो। 3. जिनके परिवार में जैनेतरों से विवाह सम्बन्ध न हुआ हो। 4. जिनके परिवार में विधवा का विवाह सम्बन्ध न हुआ हो। 5. जो अपराध, दिवालिया, पुलिस केस, सामाजिक प्रतिबंध आदि से रहित हो। 6. जो हिंसक प्रसाधन सामग्री (कोस्मेटिक) एवं रेशमी वस्त्रों आदि का उपयोग न करते हों एवं नाखून न बढ़ाते हों। 7. जो किसी भी प्रकार के जूते, चप्पल आदि का निर्माण या व्यवसाय न करते हों। 8. जो भ्रूणहत्या, गर्भपात आदि पापवर्धक प्रवृत्तियाँ करते हों, नहीं करवाते हों और उसमें प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से भी सहभागी नहीं होते हों।। 9. शरीर में घाव हो, खून निकल रहा हो अथवा बुखार, सर्दी, खाँसी, केंसर, यक्ष्मा (T.B.), सफेद दाग आदि रोगों से आक्रान्त हो तो आहार नहीं दें। 10. रजस्वला स्त्री छठवें दिन अरिहंत परमात्मा के दर्शन, पूजन एवं साधु को आहार दे सकती हैं। अशुद्धि के दिनों में चौके से सम्बन्धित कोई कार्य नहीं
SR No.006243
Book TitleJain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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