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________________ श्रमण का स्वरूप एवं उसके विविध पक्ष...15 12. उपेक्षा संयम- गृहस्थ के पाप कार्यों का अनुमोदन नहीं करना। 13. अपहत्य (परिष्ठापना) संयम- भोजन-पानी, मल-मूत्र, वस्त्र-पात्रादि का जीवरहित स्थान में विधि पूर्वक परित्याग करना। ___ 14. प्रमार्जना संयम- वस्त्र-पात्रादि एवं वसति आदि का सम्यक प्रमार्जन करना। किसी भी वस्तु या स्थान की पहले प्रतिलेखना कर फिर प्रमार्जना करनी चाहिये। उसके पश्चात ही उसे उठाना या रखना चाहिये। 15. मन: संयम- मन में दुर्भाव नहीं रखना। 16. वचन संयम- कुवचन नहीं बोलना। 17. काय संयम- गमनागमनादि प्रवृत्तियों में सावधान रहना। संयम के अन्य सत्तरह प्रकार भी हैं-56 • अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पाँच महाव्रतों का पालन करना। • पाँच इन्द्रियों की उच्छृखल प्रवृत्ति को रोकना। • चार प्रकार के कषायों में प्रवृत्त नहीं होना और तीन योगों की शुभ प्रवृत्ति करना। तुलना- इन सत्तरह प्रकार के संयम का ऐतिहासिक अनुशीलन करें तो मौलिक रूप से यह विवेचन समवायांगसूत्र,57 आवश्यक हारिभद्रीय वृत्ति58 एवं प्रवचनसारो-द्धार59 में उपलब्ध होता है। . यदि तुलनात्मक दृष्टिकोण से विचार किया जाए तो पूर्वोक्त ग्रन्थों में यह उल्लेख संयम के सत्तरह प्रकार के रूप में ही संप्राप्त है तथा उनमें नाम, क्रम एवं स्वरूप की अपेक्षा पूर्णतया साम्य है केवल साधु प्रतिक्रमण सूत्र में इसका उल्लेख 'सत्तरह असंयम' के रूप में हआ है60 किन्तु उसमें भी नाम, क्रम एवं स्वरूप को लेकर कहीं असमानता नहीं है। दस वैयावृत्य ___ अपने से बड़े या असमर्थ की सेवा-शुश्रुषा करना अथवा स्वयं को दूसरों की सेवा में जोड़ना व्यावृत्ति है और उसका भाव वैयावृत्य कहलाता है। जैन साहित्य में दस प्रकार के व्यक्तियों की सेवा करने का विशेष निर्देश है। वैयावृत्य करने योग्य दस व्यक्ति ये हैं 1. आचार्य की सेवा करना 2. उपाध्याय की सेवा करना 3. स्थविर की
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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