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________________ श्रमण का स्वरूप एवं उसके विविध पक्ष...9 श्रमण जीवन की महत्ता ____ भारतीय परम्परा मुख्यत: दो संस्कृतियों पर अवलम्बित है-एक ब्राह्मण संस्कृति और दूसरी श्रमण संस्कृति। ब्राह्मण संस्कृति में गृहस्थाश्रम को विशेष महत्त्व दिया गया है। मनुस्मृति में यह स्पष्ट कहा गया है कि अग्निहोत्रादि अनुष्ठान करने वाला गृहस्थ ही श्रेष्ठ है क्योंकि वह तीन आश्रमों का पालन करता है।26 महाभारत में गृही आश्रम को ज्येष्ठ कहा है जबकि श्रमण संस्कृति में श्रमण जीवन को अधिक मूल्य दिया गया है।27 इस संस्कृति में आश्रम व्यवस्था को कोई स्थान नहीं मिला है। यदि कोई साधक गृहस्थ में रहना चाहता है तो वह कम से कम श्रावक के बारह व्रतों को अवश्य ग्रहण करे। उन व्रतों को ग्रहण करते समय वह गृहस्थ इस सत्य को सरल मन से स्वीकार करता है कि 'मैं श्रमणधर्म को स्वीकार करने में असमर्थ हूँ, अत: श्रावक के द्वादशव्रत ग्रहण करता हूँ। 28 तदनन्तर व्रतों का पालन करते हुए भी प्रतिपल यही चिन्तन करता है कि वह दिन कब आयेगा जिस दिन मैं श्रमण धर्म को ग्रहण कर अपने जीवन को सार्थक करूँगा? __उत्तराध्ययनसूत्र में वर्णन आता है कि छद्मवेषधारी इन्द्र ने नमिराजर्षि से निवेदन किया-'हे राजर्षे! तुम सर्वप्रथम यज्ञ करो। श्रमण और ब्राह्मणों को भोजन कराओ। उदार मन से दान दो और उसके बाद श्रमण बन जाना।' नमिराजर्षि ने प्रत्युत्तर में कहा-एक मनुष्य प्रति माह दस लाख गायों का दान करे और दूसरा संयम धर्म का पालन करे, उनमें संयम पालन ही श्रेष्ठ है।29 इस प्रकार सिद्ध होता है कि श्रमण परम्परा में मुनि जीवन का सर्वोपरि महत्त्व है। जैन परम्परा में श्रमण बनने एवं साधना के अनुकूल वातावरण निर्मित करने हेतु वेश परिवर्तन और गृहवास त्याग आवश्यक माना गया है। आचार्य देवेन्द्रमुनि के मतानुसार यदि आन्तरिक जीवन की पूर्ण विशुद्धि हो चुकी हो तो साधक गृहस्थ वेश में भी और अन्य वेश में भी मुक्ति प्राप्त कर सकता है। मुक्ति के लिए वेश उतना बाधक नहीं है जितना आन्तरिक विकार, किन्तु आध्यात्मिक समुत्कर्ष के लिए बाह्य वातावरण की पवित्रता भी अपेक्षित है और समुचित अभ्यास के लिए वेश परिवर्तन भी जरूरी है।30 श्रमण कैसा हो? श्रमण कैसा होता है? इस सम्बन्ध में जैन टीकाकारों ने सम्यक वर्णन
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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