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________________ श्रमण का स्वरूप एवं उसके विविध पक्ष...7 4. गैरुक-गेरुए रंग के वस्त्र पहनने वाले त्रिदण्डी साधु गैरुक कहलाते हैं। 5. आजीविक-गोशालक मत के अनुयायी साधु आजीविक कहलाते हैं। जैन साहित्य में शिथिलाचारी और स्वच्छंद विहारी श्रमणों के भी पाँच प्रकार निर्दिष्ट हैं, परन्तु जिनमत में ये साधु अवन्दनीय माने गये हैं 1. पार्श्वस्थ-पाश का अर्थ है- बन्धन। जो मिथ्यात्व आदि का बन्ध करता है अथवा ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप में सम्यक् उपयोग नहीं रखता है, ज्ञानादि के समीप रहकर भी उन्हें नहीं अपनाता है, वह पार्श्वस्थ कहलाता है। पार्श्वस्थ साधु भी दो प्रकार के होते हैं (i) सर्व पार्श्वस्थ- केवल वेषधारी साधु सर्व पार्श्वस्थ है। (ii) देश पार्श्वस्थ- निष्प्रयोजन शय्यातरपिंड, राजपिंड, नित्यपिंड, अग्रपिंड का आहार ग्रहण करने वाला देश पार्श्वस्थ है। 2. अवसन्न- जो साधु सामाचारी के पालन में प्रमाद करता है, वह अवसन्न कहलाता है। अवसन साधु दो प्रकार के होते हैं___(i) सर्व अवसन्न-जो एक पक्ष के अन्दर पीढ़ फलक आदि के बन्धन खोलकर उनकी प्रतिलेखना नहीं करता है, बार-बार सोने के लिए संथारा बिछाये रखता है अथवा स्थापना और प्राभृतिका दोष से दूषित आहार लेता है, वह सर्व अवसन्न है। ___(ii) देश अवसन्न-जो प्रतिक्रमण नहीं करता या असमय में करता है, स्वाध्याय नहीं करता या निषिद्ध काल में करता है, गमनागमन का प्रतिक्रमण नहीं करता है, बैठने एवं सोने के स्थान की प्रमार्जना नहीं करता है, दशविध सामाचारी का पालन नहीं करता है, वह देश अवसन्न है। 3. कुशील- कुत्सित-निन्द्य आचार वाले साधु कुशील कहलाते हैं जो कि तीन प्रकार के होते हैं(i) ज्ञान कुशील-काल, विनय आदि ज्ञानाचार की विराधना करने वाला साधु ज्ञान कुशील है। (ii) दर्शन कुशील-नि:शंकित, निष्कांक्षित आदि समकित के आठ आचार की विराधना करने वाला दर्शन कुशील है। (iii) चारित्र कुशील- कौतुक, भूतिकर्म, प्रश्नाप्रश्न, निमित्त, लक्षण, विद्या, मन्त्रादि द्वारा आजीविका का कार्य करने वाला चारित्र कुशील है।
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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