SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 439
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महापरिष्ठापनिका (अंतिम संस्कार) विधि सम्बन्धी नियम...377 को मारने अथवा गृहस्थ के सांसारिक कार्यों में किया जा सकता है। यदि सागारिक (जिससे अनुमति प्राप्त कर काष्ठ ग्रहण किया गया है उस गृहस्थ श्रावक) के द्वारा अपने स्थान पर काष्ठ को नहीं देखा जाए तो वह क्रोधित हो सकता है। यदि वह धर्मप्रेमी न हो तो जिनशासन हीलना भी कर सकता है। अत: वहनकाष्ठ को सावधानीपूर्वक यथास्थान रख ही देना चाहिए। यदि अकेला साधु मृत देह को स्थंडिल भूमि तक ले जाने में समर्थ हो, तो काष्ठग्रहण नहीं करना चाहिए, असमर्थ होने पर ही काष्ठ ग्रहण का विधान है। बृहत्कल्पसूत्र में मृत भिक्षु के देह विसर्जन हेतु वहनकाष्ठ लाने एवं उसे पुन: यथास्थान रख देने का ही निर्देश है। मृत भिक्षु को कौनसी दिशा में परिष्ठापित करना चाहिए, किस दिशा क्रम से परिष्ठापन योग्य भूमि का निरीक्षण करना चाहिए, किस दिशा में शव का मुख रखते हुए उसे गांव के बाहर ले जाना चाहिए, इत्यादि विषयों पर विचार नहीं किया गया है। ___ व्यवहारसूत्र में श्रमण के मृत शरीर को परिस्थापित करने और उपकरणों को ग्रहण करने की विधि निम्नानुसार उल्लिखित है ग्रामानुग्राम विचरण करता हुआ भिक्षु यदि अकस्मात मृत्यु को प्राप्त हो जाए और उसके शरीर को कोई साधर्मिक श्रमण देख ले और यह जान ले कि यहाँ 'कोई गृहस्थ नहीं है तो उस मृत भिक्षु के शरीर को एकान्त निर्जीव भूमि पर प्रतिलेखना एवं प्रमार्जना करके विसर्जित करें। यदि उस मृत श्रमण का कोई उपकरण उपयोग में लेने योग्य हो तो उन्हें सागारकृत ग्रहण कर पुन: आचार्यादि की आज्ञा लेकर उपयोग में लिया जा सकता है। ___ बृहत्कल्पसूत्र में उपाश्रय में कालधर्म को प्राप्त होने वाले साधु की परिष्ठापन विधि कही गई है और व्यवहारसूत्र में विहार करते हुए कोई भिक्षु मार्ग में कालधर्म को प्राप्त हो जाये तो उसके मृत शरीर को प्रतिस्थापित करने की विधि बताई गई है। इसके अतिरिक्त दोनों आगमसूत्रों में कुछ भी नहीं कहा गया है। इस विषयक विस्तृत विवेचन आवश्यकनियुक्ति, हारिभद्रीय टीका, बृहत्कल्पभाष्य आदि में दिग्दर्शित होता है। आवश्यकनियुक्तिकार भद्रबाहुस्वामी ने मृतश्रमण की परिष्ठापन विधि से
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy