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________________ अध्याय-15 महापरिष्ठापनिका (अंतिम संस्कार) विधि सम्बन्धी नियम प्रत्येक व्यक्ति जीना चाहता है। मृत्यु सभी को अप्रिय है। यद्यपि मृत्यु निश्चित है। मृत्यु का भय दुनिया में सबसे बढ़कर है किन्तु जो साधक संलेखना-समाधि द्वारा जीवन को सफल कर लेता है वह आनन्द मनाते हुए मृत्यु का वरण करता है। ऐसे साधकों के लिए मृत्यु भी महोत्सव बन जाती है। जैन साहित्य में संलेखना एवं अनशनपूर्वक मृत्यु प्राप्त करने को सकाम मरण अथवा समाधिमरण कहा गया है। यही मरण जन्म-मरण की परम्परा का विच्छेदक है। इसके विपरीत अज्ञानी जीवों के मरण को अकाममरण अथवा बालमरण कहा गया है। सर्वविरतिधर मुनि या अनशनधारी के देहत्याग करने पर उसके शरीर का अंतिम संस्कार करने के सम्बन्ध में बृहत्कल्पसूत्र एवं व्यवहारसूत्र में अतिसामान्य स्वरूप प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त अन्य आगमों में लगभग यह वर्णन नहीं है। हालाँकि आगम व्याख्या साहित्य में इसकी विस्तृत चर्चा प्राप्त होती है। आवश्यकनियुक्ति हारिभद्रीय टीका में इस विषयक 17 द्वार वर्णित हैं। इसी तरह बृहत्कल्पभाष्य एवं व्यवहारभाष्य में भी तद्विषयक सुविस्तृत विवरण उपलब्ध है। विधिमार्गप्रपा, प्राचीन सामाचारी, आचारदिनकर आदि ग्रन्थों में भी यह विधि उल्लिखित है। महापरिष्ठापनिका शब्द का अर्थ घटन ‘महत' शब्द, ‘परि' उपसर्ग एवं 'स्था' धातु- इन तीन पदों के योग से महापरिष्ठापनिका शब्द व्युत्पन्न है। महत संस्कृत रूप से महा शब्द बना है। इसका अर्थ है- बड़ा। शरीर अपेक्षाकृत स्थूल होता है अत: यहाँ महा का अर्थ मृत शरीर है। परिष्ठापनिका का अर्थ है- सम्यक् प्रकार से स्थापन करना अर्थात
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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