SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 420
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 358... जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन दूर एकान्त) भूमि पर मलोत्सर्ग करना चाहिए और मल की शंका होने पर उसका तुरन्त निवारण करना चाहिए | 20 बिलवाली भूमि के दोष पंचवस्तुक के अनुसार बिल युक्त स्थान में मलोत्सर्ग करने पर, पानी आदि बिल में चला जाए तो चींटी आदि सूक्ष्म जीवों की विराधना होती है। यदि बिल में रहने वाले सर्प, बिच्छू आदि काट लें तो आत्म-विराधना भी संभव होती है। बिल आदि में पाँवादि घुसने की भी शक्यता रहती है। अतः बिल वर्जित स्थान पर मलोत्सर्ग करना चाहिए । जीवयुक्त भूमि के दोष जीवयुक्त (त्रसजीव एवं बीज युक्त) भूमि पर मलोत्सर्ग करने से हिंसा के कारण संयम विराधना होती है । सर्पादि के काटने से तथा बीज चुभने वाले हों तो पाँव में घुसने से साधु के गिरने की संभावना भी रहती है इससे प्राणोत्सर्ग हो सकता है।21 समाहार रूप में कहा जा सकता है कि एक संयोगी विकल्पों में जो दोष लगते हैं, द्विक संयोगी, त्रिकसंयोगी आदि विकल्पों में उनकी अपेक्षा विशेष दोष लगते हैं, क्योंकि अन्य-अन्य संयोगों के दोष भी उनमें जुड़ जाते हैं। विविध सन्दर्भों में स्थंडिल विधि की उपयोगिता वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यदि स्थंडिल विधि की प्रासंगिकता पर चिन्तन किया जाए तो आज के भौतिक परिवेश में यह एक अनुपयुक्त क्रिया प्रतिभासित होती है, परन्तु यदि इसके पीछे के रहस्यों एवं विधि नियमों का ज्ञान किया जाए तो यहाँ जैन धर्म की सूक्ष्म दृष्टि का भी परिबोध होता है । स्थंडिल भूमि के 1024 भाँगों में मात्र एक भांगा शुद्ध माना गया है। इससे स्पष्ट होता है कि साधु-साध्वी स्थंडिल के लिए अत्यन्त सावधानीपूर्वक ऐसी भूमि में जाते हैं, जिससे सामान्य जन में हिलना और धर्मनिन्दा न हो। बाह्य भूमि में जाने से घर में दूषित परमाणु नहीं फैलते तथा तीसरे प्रहर में जाने से सूर्य की धूप से शरीर को विशेष शक्ति प्राप्त होती है। शौचालय की सफाई हेतु जल की अधिक आवश्यकता पड़ती है जो मुनि के लिए संभव नहीं है । परन्तु वर्तमान में शुद्ध स्थंडिल भूमि की प्राप्ति भी एक समस्या है। यदि प्रबन्धन की दृष्टि से इसका मूल्य आंके तो मुनि जीवन में इसकी
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy