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________________ 318...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन हैं। माध्यस्थ, निस्पृह एवं निभृत (कछुए की भांति इन्द्रियों को सुस्थिर रखने वाले) आदि गुणों से समन्वित तथा विषयादि काम भोगों से निर्लिप्त होते हैं। जैसे माता अपने पुत्रों के प्रति अनन्य वात्सल्य भाव रखती है वैसे ही श्रमण भी किसी प्राणी को कष्ट न पहुँचाते हुए, इस धरा पर विचरण करते हैं। वे पापभीरु होते हैं अत: विहारचर्या करते हुए भी उन्हें पाप कर्मों का बंध नहीं होता। इस तरह विहारशील श्रमण विशुद्ध दया सम्पन्न और सुविशुद्ध परिणाम युक्त होते संक्षेप में अनियत विहार से अनासक्ति का उद्भव होता है तथा आत्म साधना में निरन्तर वृद्धि होती है। इससे अधिकाधिक ज्ञानार्जन और जनकल्याण की भावना के कार्यान्वयन का अलभ्य अवसर प्राप्त होता है। विविध सन्दर्भो में विहारचर्या की प्रासंगिकता जैन मुनि की आवश्यक चर्याओं में से एक है विहारचर्या। इसके पीछे वैयक्तिक एवं सामाजिक उत्कर्ष के अनेक नियम अन्तर्निहित हैं। प्रबंधन की दृष्टि से यदि विहार की उपयोगिता के विषय में चिंतन किया जाए तो यह व्यक्ति प्रबंधन, समाज प्रबंधन, ज्ञान प्रबंधन एवं अन्य कई क्षेत्रों में सहायक एवं विकास में निमित्तभूत हो सकता है। विहार के दौरान मुनि विविध प्रदेशों में भ्रमण करते हुए वहाँ की भाषा, वेश-भूषा, रहन-सहन, जनसमूह आदि का ज्ञान प्राप्त करने के साथ-साथ वहाँ के विशिष्ट ज्ञानीजनों से स्वयं ज्ञानार्जन करते हैं तथा धारणा ज्ञान से उस क्षेत्र को उपकृत करते हैं। नए-नए स्थानों का भ्रमण करने से वहाँ की जनता में धर्म के प्रति आस्था उत्पन्न होती है और जिनवाणी का प्रचार-प्रसार होता है, जिससे समाज में भौतिकता एवं अध्यात्म मार्ग में संतुलन स्थापित होता है। विहारचर्या से शरीर भी संतुलित रहता है, मोटापा आदि कम होता है तथा शारीरिक रसायन भी नियंत्रित रहते हैं, जिससे शरीर प्रबंधन हो सकता है। वृषभ, ग्लान, गीतार्थ आदि मुनियों के संग रहने से उनके ज्ञान, अनुभव, आचार-विचार आदि का विविध दृष्टियों से व्यक्तिगत लाभ होता है। समाज को भी साधु वर्ग के प्रति अपने कर्तव्यों का भान होता है, जिससे भावी में होने वाले साधु-साध्वियों को बाधाएँ उत्पन्न नहीं होती। इस प्रकार सामाजिक व्यवस्थाओं में भी एक समन्वय स्थापित होता है। नव्य जगत की समस्याओं के संदर्भ में विहार चर्या की प्रासंगिकता पर
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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