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________________ विहारचर्या सम्बन्धी विधि-नियम...315 प्रतिकूलताओं से बचने के लिए ऐसे कई सामान्य कारणों को लेकर विहार कल्प का खंडन करते हैं। निष्प्रयोजन एक स्थान में अधिक रहने पर चारित्र दोष की संभावनाएँ अत्यधिक बढ़ जाती हैं, अत: गीतार्थ सामाचारी का अनुपालन करना चाहिए। 2. अप्रतिबद्ध विहार- जैन धर्म में अप्रतिबद्ध (किसी प्रकार की मनोकामना या प्रतिबंध से रहित) विहार को उत्कृष्ट कोटि का विहार बताया गया है। यह विहार चार प्रकार का होता है-13 ___(i) द्रव्य- 'अमुक गाँव, अमुक नगर में जाकर बहुत से श्रावकों को प्रतिबोध दूंगा' अथवा ऐसा कुछ उपाय करूं कि 'अमुक श्रावक लोग मुझे छोड़कर दूसरों के भक्त न बन जायें इस प्रकार की भावना से रहित होकर विहार करना द्रव्यत: अप्रतिबद्ध विहार है। ___(ii) क्षेत्र- जहाँ प्रतिकूलताएँ हों, उस प्रकार की वसति (उपाश्रय) को छोड़कर अनुकूलता वाली वसति में रहना चाहिए ऐसी भावना से रहित होकर विहार करना क्षेत्रतः अप्रतिबद्ध विहार है। __ (iii) काल- इस शरद काल में विहार करूंगा तो प्राकृतिक सौन्दर्य देखने को मिलेगा, इस तरह का विचार न करते हुए विहार करना कालत: अप्रतिबद्ध विहार है। __ (iv) भाव- यदि मैं अमुक क्षेत्र में जाऊंगा तो मुझे स्निग्ध, मधुर आदि आहार मिलेगा, शरीर पुष्ट बनेगा अथवा एक मास से अधिक कहीं भी नहीं रहूंगा तो लोग मुझे उद्यत विहारी कहेंगे इस प्रकार के भाव न रखते हुए विहार करना भावतः अप्रतिबद्ध विहार है। मूलत: जैन श्रमण का विहार अप्रतिबद्ध होना चाहिए। जो पूर्वोक्त द्रव्यादि की प्रतिबद्धता (मनोकामना) से रहित होकर विहार करता है वही वास्तविक विहार कहलाता है। यदि जिनशासन की प्रभावना के निमित्त विहार करना हो तो वह भी अप्रतिबद्ध विहार ही कहा जायेगा। विहार की आवश्यकता क्यों? बृहत्कल्पभाष्य में पदयात्रा की उपयोगिता के पाँच कारण बतलाये गये हैं जो निम्न हैं-14 1. दर्शन विशुद्धि- जब मुनि अतिशय प्रधान, अचिन्त्यप्रभावी तीर्थंकरों की जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान आदि से सम्बन्धित भूमियों में विचरण करता हुआ
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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