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________________ अध्याय-13 विहारचर्या सम्बन्धी विधि-नियम विहारचर्या जैन साधुओं का आवश्यक कृत्य है। आगम साहित्य में शारीरिक शक्ति के अनुसार मास कल्प का पालन करते हुए विहार करने का स्पष्ट उल्लेख है। जैन आचार-संहिता के अनुसार मुनि को वर्षावास के चार माह तक एक स्थान पर रहना चाहिए, शेष काल में उनके लिए एक स्थान पर एक माह से अधिक रहना वर्जित माना गया है। इसी प्रकार साध्वी के लिए एक स्थान पर दो माह से अधिक रहना निषिद्ध बतलाया है यानी वर्षावास के अतिरिक्त शेषकाल में साधु एक मास तक और साध्वी दो मास तक एक स्थान पर रह सकती हैं। इसी अपेक्षा से साधु की विहारचर्या नवकल्पी और साध्वी की पंचकल्पी बतलायी गयी है। विहारचर्या का अर्थ निर्वचन विहार का सामान्य अर्थ है पदयात्रा करना, देशाटन करना। वि+हार शब्द का अध्यात्ममूलक अर्थ है विविध प्रकार से कर्मरजों का हरण करने वाला। अर्थात जिस प्रक्रिया के द्वारा विविध प्रकार के कर्मरज (पाप कर्म) दूर होते हैं वह विहार कहलाता है अथवा एक निश्चित अवधि के पश्चात एक स्थान से दूसरे स्थान पर गमन करना विहार है। यहाँ 'विहार' शब्द के साथ ‘चर्या' शब्द का संयोग है। दशवैकालिक चूर्णि के अनुसार मूलगुण एवं उत्तरगुण रूप चारित्र का समुदाय चर्या कहलाता है। इस तरह 'विहारचर्या' इस संयुक्त पद के निम्न अर्थ होते हैं- 1. पद यात्रा करना, 2. जीवन की आवश्यक क्रियाएँ करना और 3. सम्यक रूप से समस्त प्रकार की यतिक्रियाएं करना आदि। मूलाचार में अनियतवास को विहार कहा गया है। सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रय को निर्मल रखने के लिए सभी स्थानों पर सतत भ्रमण करते रहना विहारचर्या है। भगवती आराधना में विहार का निर्वचन करते हुए लिखा गया है कि मुनि
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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