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________________ 300...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन भिक्षाचर्या के लिए आ-जा सकते हैं। हार्द यह है कि भिक्षादि कारणों के उपस्थित होने पर वर्षावासी मुनि पाँच कोश तक गमन कर सकता है इससे अधिक का निषेध है।22 तपवहन सम्बन्धी- निशीथभाष्य के निर्देशानुसार ऋतुबद्धकाल में प्राप्त तप प्रायश्चित्त का वहन वर्षाकाल में करना चाहिए, क्योंकि उस समय प्राणियों की बहुलता के कारण भिक्षाटन कठिन होता है तथा दीर्घकालिक प्रवास के कारण तप करने की अनुकूलता होती है।23 इस समय तप अनिवार्यता के निम्न कारण भी हैं 1. शीतलता के कारण इन्द्रियाँ उद्दीप्त हो जाती हैं। उनके निरोध के लिए तप आवश्यक है। ___2. पर्युषण तप से उत्तरगुण की अनुपालना और एकाग्रता की वृद्धि होती है। वर्षाकाल का आदि मंगल होता है। वार्षिक आलोचना की पूर्ति होती है। आलोचना की सम्पूर्ति के लिए सांवत्सरिक तेला, चातुर्मासिक बेला और पाक्षिक उपवास अवश्य करना चाहिए, क्योंकि तप को व्रत पुष्टिकारक कहा गया है। वर्षाकालीन तप से बलवृद्धि होती है कारण कि वर्षाकाल स्निग्धता के कारण स्वभावतः शक्ति प्रदायक होता है फिर तप करने से आत्मबल और अधिक बढ़ जाता है।24 आहार ग्रहण सम्बन्धी-दशाश्रुतस्कन्ध के अनुसार वर्षावास स्थित नित्यभोजी साधुओं को गृहस्थ के घरों में आहार-पानी के लिए एक बार ही निष्क्रमण-प्रवेश करना कल्पता है यानी किसी भी गृहस्थ के घर एक बार आना-जाना कल्पता है। किन्तु आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी और ग्लान के वैयावृत्य के लिए अथवा बाल शिष्य के लिए एक से अधिक बार भी गृहस्थ के घर आ-जा सकते हैं।25 पानक परिमाण सम्बन्धी-वर्षावास में स्थित नित्यभोजी साधु सब प्रकार के पानी ग्रहण कर सकता है। उपवासी साधु तीन प्रकार के पानी ग्रहण कर सकता है-1. उत्स्वेदिम-आटे का धोवन। 2. संसेइम-उबले हुए केर आदि का धोवन। 3. चाउलोदक-चावल का धोवन। बेले की तपस्या वाला साधु निम्न तीन प्रकार के पानी ले सकता है-तिलोदक, तुषोदक, यवोदका तेले की तपस्या
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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