SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 352
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 290...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन कहा गया है। मूलत: वर्षावास और पर्युषणाकल्प ये दो नाम अधिक प्रचलित हैं। इनमें भी वर्षावास-चातुर्मास के चार महीनों में और पर्यषणाकल्प-संवत्सरी पर्व के आठ दिनों में रूढ़ हो गया है। इस प्रकार वर्षावास और पर्युषणा एकार्थ वाचक होने के बावजूद आज पृथक-पृथक अर्थ में प्रयुक्त हैं। यद्यपि वर्षावास और पर्युषणा को अभिन्नार्थक मानना चाहिए। वर्षावास (पर्युषणा) के समानार्थी आगमिक व्याख्याओं में वर्षावास के गुण सम्पन्न पर्याय नाम आठ बतलाये गये हैं, जो निम्न हैं1. पर्याय व्यवस्थापन-पर्युषणा (वर्षावास) के दिन प्रव्रज्या पर्याय की संख्या का व्यपदेश किया जाता है-मुझे दीक्षित हुए इतने वर्ष हुए हैं, इसलिए वर्षावास का दूसरा नाम पर्याय व्यवस्थापन है। 2. पर्योसवना-इसमें ऋतुबद्धिक द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव पर्यायों का परित्याग और वर्षाकल्प सम्बन्धी द्रव्यों का ग्रहण किया जाता है। 3. परिवसना (पर्युषणा)-इस समय मुनिजन परि-समग्र रूप से, वसना' आत्म साधना में स्थित हो जाते हैं अथवा मुनि चार मास तक सर्वथा एक स्थान पर रहते हैं, सब दिशाओं में परिभ्रमण का निषेध कर लेते हैं, इसलिए परिवसना नाम है। 4. पर्युपशमना-इसमें कषायों एवं पूर्व कलह का क्षमायाचना द्वारा सर्वथा उपशमन कर दिया जाता है, अत: इसका नाम पर्युपशमना है। इसका लोक प्रसिद्ध प्राकृत नाम है-पज्जोसवणा। इसी का रूपान्तरित नाम पर्युषणा, पजूषण आदि है। 5. वर्षावास-इस समय वर्षा के चार मास एक स्थान पर रहते हैं। 6. प्रथम समवसरण-निशीथचूर्णि के मत से यहाँ समवसरण का अर्थ है बहुतों का समवाय। वे दो होते हैं-वर्षाकालिक और ऋतुबद्धकालिक। वर्षाकाल (पर्युषणाकाल) से वर्ष का प्रारम्भ होता है, इसलिए इसे प्रथम समवसरण कहा गया है। किसी तरह का व्याघात न हो तो प्रथम प्रावृट् (आषाढ़) में ही वर्षावास योग्य क्षेत्र में प्रवेश कर लेते हैं। बृहत्कल्पटीका में प्रथम समवसरण, ज्येष्ठावग्रह और वर्षावास इन तीनों को एकार्थक कहा है तथा द्वितीय समवसरण और ऋतुबद्ध इन दोनों को समानार्थक बताया है।
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy