SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 348
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 286...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन आधुनिक सन्दर्भ में शय्यातर विधि की उपयोगिता जैन मनियों के लिए आगमों में शय्यातर का विधान है। यह मुनि जीवन एवं वर्तमान सामाजिक जीवन में निम्न कारणों से उपयोगी है शय्यातर के द्वारा मुनि को रहने का स्थान देने से उसे सेवा-स्वाध्याय आदि के लिए स्थान मिल जाता है तथा गृहस्थ को मुनि के सदुपदेश से सद्मार्ग की प्राप्ति हो सकती है। शय्यातर के घर का आहार आदि ग्रहण न करने से गृहस्थ के मन में भी साधु शुश्रूषा आदि करनी पड़ेगी ऐसे दुर्भाव उत्पन्न नहीं होते, जिससे वह सहजतापूर्वक रहने का स्थान प्रदान करता है तथा मुनि जीवन में भी शय्यातर पिंड आदि ग्रहण न करने से प्रमाद, आसक्ति आदि का वर्धन नहीं होता है। इसी प्रकार शय्यातर की अवधारणा को पुष्ट करने से मुनि एवं गृहस्थ के बीच निस्वार्थ सम्बन्ध बन सकता है। प्रबंधन के संदर्भ में यदि शय्यातर के महत्त्व की समीक्षा करें तो वह जीवन प्रबंधन,समाज प्रबंधन आदि के क्षेत्र में बहुपयोगी हो सकता है। शय्यातरपिंड आदि का जो त्याग किया जाता है उससे सम्बन्धों की अति रागात्मकता आदि नहीं बढ़ पाती। मुनि के चारित्र धर्म में दूषण नहीं लगते, जिससे मुनि जीवन परिशुद्ध रहता है। इसी के साथ समाज के लोगों को भी अपने कर्तव्य का भान होता है। इससे समाज में साधु जीवन के प्रति अहोभाव बढ़ता है तथा साधु भी गृहस्थ की समस्याओं से परिचित होता है, जिससे दोनों में आपसी संतुलन एवं सामंजस्य स्थापित होता है। शय्यातर के द्वारा यदि श्रेष्ठ आहारादि का दान दिया जाए तो मुनि जीवन में स्थान आदि के प्रति आसक्ति एवं राग-भाव उत्पन्न होने की संभावना रहती है वरना राग आदि का उद्भव न होने से कषाय प्रबंधन में भी सहयोग मिल सकता है। वर्तमान युग की समस्याओं के संदर्भ में यदि शय्यातर की भूमिका पर विचार करें तो यह भौतिक चकाचौंध में लिप्त समाज में आध्यात्मिक जागृति लाता है। इसके द्वारा मुनि के लिए जो वसति सम्बन्धी दोष एवं बाधाएँ उत्पन्न हो रही हैं उनका समाधान हो सकता है। वर्तमान में साधु-साध्वी के प्रति उत्पन्न हो रही गलत धारणाओं एवं भ्रम विनाश में भी शय्यातर आदि के घर में उसके तप त्याग का प्रभाव पड़ सकता है।
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy