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________________ शय्यातर सम्बन्धी विधि-नियम...281 गाढ़तर- यदि कोई मुनि विशिष्ट रूप से रोगी हो तो उसके योग्य आहार की प्राप्ति हेतु शय्यातर पिंड ग्रहण कर सकते हैं। ___ अगाढ़तर- यदि कोई मुनि सामान्य रूप से रोगी हो तो उसके योग्य भिक्षा हेतु पहले तीन बार अन्य घरों में जाना चाहिए। यदि वहाँ ग्लान के अनुकूल द्रव्य न मिलें तो उसके बाद शय्यातर के घर से ले सकते हैं। निमन्त्रण- शय्यातर के द्वारा आहार आदि के लिये अत्यन्त आग्रह हो तो एक बार ग्रहण कर सकते हैं। दुर्लभ द्रव्य- आचार्य के सेवन योग्य घी,दूध आदि दुर्लभ द्रव्य अन्यत्र न मिले तो उनके निमित्त शय्यातर के घर से लेना कल्पता है। अशिव- कदाचित दुष्ट व्यन्तर आदि का उपद्रव हो जाये, उस समय अन्यत्र गमन करना शक्य न हो और अन्यत्र भिक्षा न मिलती हो तो शय्यातर के घर से लेना कल्पता है। __ अवमौदर्य- अकाल की स्थिति होने पर अन्यत्र भिक्षा न मिलती हो तो शय्यातर के यहाँ से आहारादि लेना कल्पता है। प्रद्वेष- कारणवश राजा द्वेषी बन जाये और शहरी प्रजा को भिक्षादान करने का सर्वथा निषेध कर दे तो ऐसी स्थिति में स्थानीय मुनि संघ गुप्त रूप से शय्यातर के घर का आहारादि ग्रहण कर सकते हैं। भय- कदाचित चोरादि का भय हो या तनाव ग्रस्त स्थिति में कयूं आदि लगा हुआ हो तो शय्यातर पिण्ड लिया जा सकता है।12 __ वर्तमान में इनके अतिरिक्त अन्य अपवाद भी स्वीकार कर लिये गये हैं और उपचारतः उस विधि में भी परिवर्तन कर दिया गया है। हालांकि ये आपवादिक कारण सर्व धर्म संघों में प्रविष्ट हुये हों यह जरूरी नहीं है, किन्तु कुछ परम्पराओं में अवश्य स्वीकार कर लिये गये हैं। जैसे किसी रूग्ण मुनि की सेवार्थ हास्पीटल के निकटवर्ती गृहस्थ के घर पर रुकना हो तो अनुज्ञा लेकर रुक जाते हैं तथा आस-पास अन्य घरों की सुविधा न होने पर शय्यातर का आहारादि भी ग्रहण कर लेते हैं किन्तु जब उस स्थान को छोड़ते हैं तब दिन की संख्या के अनुसार किसी अन्य गृहस्थ से निश्चित द्रव्य राशि (रुपया) शय्यातर को दिलवा देते हैं और इससे यह मान लेते हैं कि हम शय्यातर पिण्ड के दोष से मुक्त हो गये हैं, किन्तु यह गीतार्थ आचरणा नहीं है। वर्तमान परिपाटी तो यह है कि जिस स्थान विशेष में या जिस गाँव आदि
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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