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________________ 272... जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन पाद विहार करते हुए जहाँ जैन परिवारों के घर नहीं आते हैं उन क्षेत्रों को छोड़कर प्राय: जहाँ जैन संघ हैं, वहाँ पहले से ही शय्या - संस्तारक की पूर्ण व्यवस्था रहती है। धर्म आराधना के नाम से बड़े-बड़े भवन सब जगह बन रहे हैं। वहाँ साधु-साध्वियों के लिए उपयोगी पट्टा, चौकी, फलक आदि की व्यवस्था भी मौजूद रहती है। इसी के साथ वस्त्र धोने के साधन (बाल्टी - परात आदि), गर्म जल को शीतल करने के साधन, पढ़ने के साधन आदि अनेक तरह की सुविधाएँ एक मेहमान की भाँति भवन या उपाश्रय बनाने के साथ उपलब्ध करा दी जाती है ताकि मुनिवर्ग जब आएं तो सुविधानुसार उनका उपयोग कर सकें। इस तरह उपलब्ध सुख-सुविधाओं के बीच रहने वाले साधुसाध्वी गवेषणा सम्बन्धी क्रिया से बच जाते हैं। कभी-कभार मुनि लोग गवेषणा करने के लिए निकलते भी हैं तो कुछ गृहस्थों को उनके द्वारा पाट आदि उठाकर लाना रुचिकर नहीं लगता है। वे इस तरह की प्रवृत्तियों को स्वयं का या जिनशासन का अपमान मानते हैं। इस मूल विधि के अभाव में संस्तारक गवेषणा का काल, संस्तारक सुपुर्द करने की विधि आदि भी प्रचलन में नहीं रह गई है। आजकल इस सम्बन्ध में मात्र इतनी ही विधि दिखायी देती है कि साधुसाध्वी संघीय सदस्यों से अनुमति ग्रहण कर उपाश्रय में प्रवेश करते हैं। उसके अनन्तर वहाँ जो भी गृहस्थ श्रावक खड़े हों अथवा जो सेवाभावी आगेवान हो या उपाश्रय की व्यवस्था को संभालता हो उस व्यक्ति से पाट - चौकी आदि की मौखिक अनुमति ले लेते हैं और जब उपाश्रय से प्रस्थान करते हैं तब भी मौखिक रूप से संभला देते हैं। आधुनिक काल के मकान पक्की फर्श वाले होने से तृणादि की तो जरूरत ही नहीं रहती है । जैन आगमों में वर्षाकाल के समय पाट आदि ग्रहण करने का जो उत्सर्ग विधान दिखलाया गया है वह वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पूर्णत: घटित नहीं होता, क्योंकि उस काल में मकानों की फर्शे कच्ची होती थीं अथवा साधुजन छोटे कस्बों में या शहरी इलाकों के बाहर उद्यानादि में निवास करते थे। तब प्राकृतिक रूप से जीव-जन्तुओं की अधिक उत्पति होने के कारण पाट आदि की आवश्यकता अनिवार्य हो जाती थी, जबकि कालान्तर में पक्के फर्श युक्त मकान होने से जीव-जन्तुओं का उपद्रव नहीं के बराबर होता है। इस स्थिति में
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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