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________________ 268... जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन शय्या - संस्तारकों की पुन: आज्ञा प्राप्त कर लेनी चाहिये या उन्हें लौटा देना चाहिए। 11 जिस मकान में रहने की अपेक्षा से शय्या संस्तारक ग्रहण किया हो, उसे किसी कारणवश अन्य मकान में ले जाना हो तो उसके मालिक की पुनः आज्ञा लेनी चाहिए। इसका कारण यह है कि शय्या - संस्तारक का मालिक साधु के ठहरने योग्य स्थान को ध्यान में रखकर ही उनके उपयोग की आज्ञा देता है तथा शय्यातर भी अपने मकान में उपयोग लेने की अपेक्षा से ही आज्ञा देता है। अतः मालिक अनुमति लिये बिना पाट आदि को अन्यत्र ले जाने पर अस्तेय व्रत का खंडन होता है। इसी के साथ संस्तारक दाता का क्रुद्ध होना, मुनि की निन्दा करना, आदि अनेक दोषों की संभावनाएं रहती हैं। 12 प्रस्तुत सूचनाओं के क्रम में यह बिन्दु भी ध्यान देने योग्य है कि पाट आदि कोई भी वस्तु उपयोग हेतु लायी गयी हो और वह कुछ काल के लिए उपयोग में न आ रही हो तो उसे उसी उपाश्रय में स्वनिश्रा के अधीन परित्यक्त किया जा सकता है किन्तु उसे जब कभी पुनः लेने की जरूरत पड़ जाये तो दुबारा आज्ञा लेकर ही उन पाट आदि का उपयोग करना चाहिए। 13 कदाचित संस्तारक -पाट आदि प्रत्यर्पणीय कोई भी उपधि वर्षा से भीग रही हो तो उन्हें तुरन्त सुरक्षित स्थान पर रख देना चाहिए, अन्यथा प्रायश्चित्त आता है। यह अनुभूत सत्य है कि स्वयं की उपधि को तो कोई भी भीगने देना नहीं चाहता, किन्तु पुनः लौटाने योग्य संस्तारक आदि के प्रति उपेक्षा हो सकती है। यद्यपि वर्षा में जाना विराधना का कारण है, किन्तु नहीं हटाने में भी अन्य अनेक दोषों की संभावनाएं होने से उसकी उपेक्षा करने का भी प्रायश्चित्त बताया गया है। यदि उपधि भीग जाये तो कुछ समय के लिए अनुपयोगी हो जाती है। उसमें फूलन आ सकती है, कुंथुवे आदि जीवों की उत्पत्ति हो सकती है, अप्काय की विराधना भी सम्भव है, जिसकी वस्तु है उसे ज्ञात होने पर वह नाराज हो सकता है, आदि कई दोष सम्भावित हैं। इस प्रकार की उपेक्षा वृत्ति के कारण शय्या-संस्तारक मिलना भी दुर्लभ हो जाता है। इसी कारण शय्या - संस्तारक को विधिवत लौटाना चाहिये, खो गये शय्या-संस्तारक की गवेषणा करनी चाहिये, अधिकृत संस्तारक की प्रतिदिन
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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