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________________ 264...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन 1. जो संस्तारक अण्डों, सूक्ष्म जीव-जन्तुओं, सचित्त बीजों, भीगी मिट्टी, मकड़ी के जालों आदि से युक्त हो, वह ग्रहण न करें, क्योंकि जीव-जन्तु युक्त संस्तारक लेने से उनकी विराधना होती है, जिससे संयम की भी विराधना होती है। 2. जो संस्तारक जीव-जन्तु से रहित होने पर भी भारी हो, उसे ग्रहण न करें, क्योंकि भारी संस्तारक को लाने, ले-जाने और उठाने में बहुत कठिनाई होती है। कदाचित उनको उठाते-रखते हुए आत्म विराधना हो सकती है। भारी संस्तारक का प्रतिलेखन भी ठीक से नहीं हो सकता है, अतएव आत्म-विराधना और संयम-विराधना के कारण भारी संस्तारक लेने का निषेध किया गया है। 3. जो संस्तारक जीव-जन्तु से रहित और हल्का भी है, किन्तु गृहस्थ उसे वापस लेने को राजी नहीं हो, तो उस अप्रतिहारिक संस्तारक को भी ग्रहण न करें, क्योंकि गृहस्थ द्वारा पुन: संस्तारक न लेने पर साधु के सामने यह समस्या खड़ी हो सकती है कि वह विहार के समय उसे कहाँ रखे? क्योंकि उसे उठाकर तो विहार नहीं किया जा सकता। दूसरा कारण यह है कि एक व्यक्ति के यहाँ से ली हुई वस्तु दूसरे के यहाँ रखी भी नहीं जा सकती। यदि उसे वैसे ही त्याग दें तो उसके परित्याग आदि का दोष लगता है। इसलिए अप्रतिहारिक संस्तारक लेना निषिद्ध बतलाया गया है। 4. जो संस्तारक जीव-जन्तु रहित है, हल्का है और प्रतिहारिक यानी गृहस्थ उसे वापिस लेने को राजी है, परन्तु शिथिल बन्धन वाला हो, टूट-फूट की स्थिति में हो, तो उसे ग्रहण न करें, क्योंकि शिथिल बंध वाला और टूटने-फूटने वाला संस्तारक लेने पर यदि उसमें विशेष टूट-फूट हो जाये तो साधु-साध्वी को पलिमंथ दोष लगता है, अतएव अस्थिर बंधवाला संस्तारक भी अग्राह्य माना गया है। सारांशतः जो संस्तारक जीव-जन्तु रहित, हल्का, प्रतिहारिक और दृढ़ बन्धनवाला हो, वही साधु-साध्वी के लिए ग्राह्य है। इसलिए साधु-साध्वी को उक्त लक्षणोपेत संस्तारक ही ग्रहण करना चाहिए।
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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