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________________ वसति (आवास) सम्बन्धी विधि-नियम...259 आदि में भी यह विवरण प्राप्त होता है। आचारांग चूर्णिकार एवं टीकाकार ने इस विषय पर विस्तृत प्रकाश डाला है। यदि वसति विधि का तुलनात्मक पक्ष उद्घाटित किया जाए तो पूर्व ग्रन्थों के आधार पर यही सिद्ध होता है कि इसकी चर्चा सभी ग्रन्थों में समान रूप से की गई है। ___यदि प्रचलित परम्पराओं की दृष्टि से मनन किया जाये तो ज्ञात होता है कि वसति से सम्बन्धित पूर्वोक्त नियम खरतरगच्छ, तपागच्छ, स्थानकवासी, तेरापंथी आदि सभी साधु-साध्वियों के लिए समान रूप से अनुकरणीय हैं, इसमें सामाचारी भिन्नता नहीं है। दिगम्बर भिक्षु एवं भिक्षुणी के लिए भी वसति संबंधी अनेक नियम कहे गये हैं। जब मूलाचार आदि ग्रन्थों का पर्यवेक्षण करते हैं तो अवगत होता है कि इस विषयक अधिकांश नियम श्वेताम्बर भिक्षु-भिक्षुणी के समान ही है। जैसेजीव-जन्तु युक्त एवं उद्देश्य निर्मित उपाश्रय में नहीं ठहरना, भिक्षुणी को उपाश्रय में अकेले नहीं रहना, गृहस्थ आवासों के मध्य नहीं रहना आदि। वैदिक ग्रन्थों में इस विषयक विस्तृत चर्चा तो प्राप्त नहीं होती है परन्तु वहाँ भी जैन मनियों की भाँति संन्यासी को गाँव के बाहर रहने का निर्देश दिया गया है। संन्यासी के लिए गृहत्याग एवं परिवार त्याग को भी आवश्यक बताया गया है। वसति के सम्बन्ध में इतना कहा गया है कि सूर्यास्त होने पर वृक्ष के नीचे या परित्यक्त घर में आकर ठहरें, रात्रि यहाँ व्यतीत करें।31 इससे सूचित होता है कि इस परम्परा में भी गृहस्थों के निवास से दूर वसति ही संन्यासी के आवास हेतु ग्राह्य मानी गयी है और गृहस्थादि के मध्य रहने का निषेध किया गया है। अतएव वसति सम्बन्धी नियम को लेकर जैन धर्म और हिन्दु धर्म में मौलिक रूप से असमानता के तत्त्व नजर नहीं आते हैं। बौद्ध परम्परा में भिक्षु के लिए आवास सम्बन्धी चर्चा करते हुए यह कहा गया है कि उन्हें उपसंपदा काल में चार आश्रयों की शिक्षा दी जाती है, उसमें से एक आश्रय के अनुसार वृक्ष के नीचे निवास करना चाहिए। भिक्षुणियों के लिए इस आश्रय का विधान नहीं है। चारित्र रक्षा की दृष्टि से उन्हें वृक्ष मूल में या अटवी में रहने का निषेध किया गया है। उनके लिए प्राय: भिक्षुणी विहार के ही उल्लेख मिलते हैं अर्थात बौद्ध भिक्षुणियों के लिए उद्देश्यपूर्वक आवास
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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