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________________ 244...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन हो तो स्वयं के गिरने की सम्भावना भी रहती है अत: आत्म विराधना और संयम विराधना से बचने के लिए ऊँचे स्थानों पर नहीं ठहरना चाहिए। 6. स्त्री, पशु आदि से संसक्त स्थान बृहत्कल्पसूत्र के अनुसार जो वसति या स्थान बालक एवं पशु से युक्त हों, जिसमें गृहस्थ निवास करते हों, जिनका रास्ता गृहस्थ के घर में से होकर जाता हो एवं चित्र युक्त हो, उसमें मुनि के लिए निवास करना वर्जित है। साध्वी के लिए सामान्यतया वे स्थान जहाँ पुरुष रहते हों, जिनके आस-पास दकाने हों, जो गली के एक किनारे पर हों तथा जिनमें द्वार नहीं हो, अकल्प्य माने गये हैं। आचारांगसूत्र में आठ प्रकार के वसति स्थानों में भी रहने का निषेध किया गया है-1. स्त्री संसक्त स्थान 2. बालकों से संसक्त स्थान 3. तुच्छ प्रकृति वाले नपुंसकादि से संसक्त स्थान 4. दुष्ट प्रकृति वाले लोगों से संसक्त स्थान 5. श्वापदों से संसक्त स्थान 6. पशु संसक्त स्थान 7. गृहस्थ परिवार से संसक्त स्थान और 8. पशु या गृहस्थ की खाद्य सामग्री से संसक्त स्थान। हानि-स्त्री-पशु आदि से संसक्त स्थानों में रहने का निषेध निम्न कारणों को लेकर किया गया है___ 1. स्त्री संसक्त- ऐसे स्थान में रहने से ब्रह्मचारी साधु के ब्रह्मचर्य में शंका-कांक्षा और विचिकित्सा हो सकती है तथा उसके ब्रह्मचर्य का खण्डन भी हो सकता है। इस सम्भावित खतरे से बचने हेतु साधु को स्त्री-संसक्त स्थान में और साध्वी को पुरुष संसक्त स्थान में निवास नहीं करना चाहिये। 2. बालक संसक्त- ऐसे स्थान में रहने से साधु को अपनी पूर्वावस्था के बच्चों और स्त्री आदि की स्मृति जागृत हो सकती है, मोह पैदा हो सकता है। यदि बच्चों की माताएं बच्चों को साधु के पास छोड़कर पूजन आदि के लिए चली जायें तो भी दोष लगता है, क्योंकि इससे साधु के स्वाध्याय-ध्यान आदि में बाधा उपस्थित होती है। 3. नपुंसक संसक्त-ऐसे स्थान में रहने से ब्रह्मचर्य दूषित होने की शंका रहती है। ___4. दुष्ट प्रकृति के लोगों से संसक्त-ऐसे स्थान में रहने से साधु की मानसिक शान्ति खण्डित होने की संभावना रहती है। छिद्रान्वेषी, द्वेषी, दुष्ट स्वभावी लोग साधु का उपहास कर सकते हैं तथा उसे परेशान और बदनाम भी कर सकते हैं।
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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