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________________ 234... जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन और वह सूख जाये तो उसी दिन उसमें पानी ला सकते हैं। पात्र रंगने की यह विधि उस दिन उपवासकर्ता मुनि के लिए कही गई है। यहाँ प्रश्न उठता है कि लेपकर्ता मुनि उपवासी होने पर भी रुग्णादि साधुओं का वैयावृत्य करने वाला हो और उसका रंगा हुआ पात्र सूखा नहीं हो अथवा स्वयं उपवास करने में अशक्त हो तब क्या करना चाहिये ? इसके समाधान में कहा गया है कि अन्य उपवासी साधु हों तो उन्हें अथवा गोचरी के लिए नहीं जाने वाले साधु को लेप किये हुए पात्र सौंप दें, फिर जिस पात्र का लेप न किया हो वह पात्र लेकर गोचरी जायें। यदि इस तरह उसके पात्र को संभाल कर रखने वाला दूसरा साधु न हो तो 1. रंग किया गया पात्र 2. आहार लेने योग्य पात्र और 3. मात्रक पात्र इन तीनों पात्रों को साथ में लेकर जायें। यदि इसमें भी समर्थ न हों तो जहाँ चींटी आदि का उपद्रव न हो ऐसे निर्जन स्थान पर लेपकृत पात्र, लेपयुक्त पोटली, रूई एवं संपुट सकोरा आदि को अन्य भस्म से मिश्रित कर रख दें, फिर गोचरी के लिए जायें। उसके लिए पानी अन्य साधु ले आएं। पात्र परिकर्म विधि - लेपकृत पात्र को सुदृढ़ करने एवं तपाने की यह विधि है-सर्वप्रथम लेपकृत पात्र को गोबर चूर्ण से पोतें, फिर उसे झोली सहित रजस्त्राण में लपेटकर बिना गाँठ लगाये खण्डित घड़े के कांठे आदि के ऊपर तपाने के लिए रखें, जैसे-जैसे धूप फिरती जाये वैसे-वैसे पात्र को बदलते हुए धूप देते जायें। रात्रि में पात्र को स्वयं के समीप रखें। अपरिग्रह महाव्रत दूषित न हो, एतदर्थ उस दिन उपयोग किये गए घड़े के कांठे आदि का परित्याग कर दें। शेष बचे लेप का उस पात्र के लिए या अन्य पात्र के लिए उपयोग करना हो तो हाथ से मसलकर जोड़ रूप में लगा दें और यदि आवश्यकता नहीं हो तो उसे राख में मिलाकर विसर्जित कर दें। इस तरह जघन्य से एक बार और उत्कृष्ट से पाँच बार किया जा सकता है। पात्र को ताप देने की विधि में यह ध्यान रखना चाहिए कि शीतकाल के प्रथम प्रहर और अन्तिम प्रहर में तथा उष्णकाल के प्रथम प्रहर के पूर्वार्द्ध और अन्तिम प्रहर के उत्तरार्द्ध भाग में पात्र को ताप में न दें, क्योंकि वह काल स्निग्ध हवा युक्त होने से लेप नाश का भय रहता है। वर्षा एवं कुत्ते आदि से रक्षण करने के लिए सूखते हुए पात्र को बार-बार देखते रहें अथवा स्वयं बीमार हों या वृद्ध
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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