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________________ पात्र ग्रहण सम्बन्धी विधि-नियम...231 है। छिद्र युक्त पात्र ग्रहण करने से गण और चारित्र में स्थिरता नहीं रहती है। सव्रण पात्र को धारण करने वाला मुनि व्रणों से युक्त होता है तथा भीतर एवं बाहर से जला हुआ पात्र मरण का संकेत करता है। अतएव मुनि को लक्षणयुक्त पात्र रखने चाहिए तथा पात्र की खोज करने वाला मुनि उस विषय का पूर्ण ज्ञाता होना चाहिए। इस विवेचन से यह विदित होता है कि मुनि को छिद्र वाले, दरार वाले, विषम आकार वाले पात्र निष्कारण नहीं रखने चाहिए।13 यदि पात्र खण्डित हो जाये तो उस पर कितने लेप कितनी बार लगाये जा सकते हैं, इसका भी विधान है। लेप युक्त पात्र की अवधि पूर्ण हो जाने के बाद उसका उपयोग नहीं करने का भी निर्देश है। इसी के साथ खण्डित एवं अलेपकृत पात्र के ग्रहण नहीं करने का भी उल्लेख है, क्योंकि अलेपकृत पात्र अत्यन्त विरस होता है। उसमें आहार करने से वमन, व्याधि अथवा भोजन के प्रति अरुचि पैदा हो जाती है। लोग भिक्षा देते समय दुर्गन्धित पात्र को देखकर मुनियों की और प्रवचन की गर्दा कर सकते हैं।14 पात्र ग्रहण एवं पात्र धारण सम्बन्धी नियम आचारांगसूत्र के अनुसार जैन साधु-साध्वियों को निम्न स्थितियों में पात्र ग्रहण नहीं करना चाहिए-15 | 1. यदि गृहस्थ साधु को काल मर्यादा में बाँधकर महीने भर बाद, दस-पाँच दिन बाद, कल-परसों या थोड़ी देर बाद आने का अनुनय करे। 2. पात्र को तेल, घृत आदि स्निग्ध पदार्थों से चुपड़ने के बाद देने का निवेदन करे। 3. पात्र पर सुगन्धित पदार्थ रगड़ कर देने को कहे। 4. पात्र को शीतल या उष्ण जल से धोकर दे। 5. पात्र में रखे हुए कंद आदि अलग निकाल कर उसे साफ करके प्रदान करे। 6. आहार-पानी तैयार करके, उसे पात्र में भर कर देने की इच्छा करे तो उक्त सब परिस्थितियों में दिया जाने वाला पात्र अकल्पनीय होता है। पात्र ग्रहण एवं पात्र प्रयोग से सम्बन्धित निम्नोक्त नियम भी मननीय हैं-16 1. मकड़ी के जालों से युक्त पात्र को ग्रहण न करें।
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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