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________________ 222...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन वस्त्र धारण की शुद्ध विधि है।15 __श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा के अनुसार साधु-साध्वी यदि अकाल वेला (वर्षाऋतु में सूर्यास्त होने के छह घड़ी अर्थात करीब ढाई घंटा पूर्व से लेकर सूर्योदय होने के छह घड़ी बाद तक, शिशिर ऋतु में सूर्यास्त होने के चार घड़ी अर्थात पौने दो घंटा पूर्व से लेकर सूर्योदय होने के चार घड़ी बाद तक, ग्रीष्म ऋतु में सूर्यास्त होने के दो घड़ी अर्थात 48 मिनिट पूर्व से लेकर सूर्योदय होने के दो घड़ी बाद तक की अवधि) में वसति से बाहर निकले तो उन्हें ऊनी वस्त्र ओढ़ना अनिवार्य है। इसका उद्देश्य संयम रक्षा एवं जीव रक्षा है। गीतार्थ परम्परा से ऐसा सुना जाता है कि इस अकाल वेला के समय खुले आकाश से सूक्ष्म अप्कायिक जीव एवं संपातिम जीव निरन्तर बरसते रहते हैं। वे यदि ऊनी वस्त्र पर गिरें तो मृतप्राय होने की स्थिति से बच जाते हैं किन्तु ऊनी वस्त्र के नीचे सूती वस्त्र जरूर होना चाहिए, इसलिए जैन साधु ऊनी एवं सूती दोनों वस्त्र मिलाकर ओढ़ते हैं। अकाल वेला में बाहर गये श्रमण के लिए यह ध्यान रखना भी जरूरी है कि वह उपाश्रय में लौटकर ऊनी वस्त्र को 48 मिनिट तक टंगा हुआ खुला ही रहने दे, अन्यथा जीव वध की संभावना रहती है। स्थानकवासी, तेरापंथी एवं दिगम्बर की प्रचलित परम्परा में ऊनी वस्त्र ओढ़ने की सामाचारी नहीं है। हाँ वस्त्र से सिर, कन्धे आदि आच्छादित करने की परम्परा है। उल्लेखनीय है कि मूर्तिपूजक परम्परा के मतानुसार अकाल वेला न हो तो भी मुनि को वसति से बाहर जाते समय ऊनी वस्त्र अपने साथ रखना चाहिए। अतः इस सामाचारी के परिपालनार्थ साधु-साध्वी अकाल वेला के अतिरिक्त समय में ऊनी वस्त्र की घड़ी करके अपने बांये कंधे पर रखते हैं। बृहत्कल्पटीका में ऊपर ऊनी एवं भीतर सूती वस्त्र ओढ़ने के निम्न कारण भी बताये गए हैं-16 • ऊनी वस्त्र शीघ्र मलिन हो जाता है, अत: भीतर में धारण करने से जूं, पनक आदि जीव उत्पन्न हो सकते हैं, जबकि ऊपर ओढ़ने से उनकी रक्षा हो सकती है। • सूती वस्त्र बाहर पहनने से विभूषा का भाव पैदा होता है, मलिन ऊनी वस्त्र को भीतर ओढ़ने से दुर्गन्ध भी आने लगती है। इसलिए सुविधि पूर्वक ओढ़ने से यह दोष भी परिहत हो जाता है।
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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