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________________ वस्त्र ग्रहण सम्बन्धी विधि-नियम...217 को दें तथा प्रवर्त्तिनी उसे जरूरत मन्द साध्वी को दें। यदि आचार्य समीप न हों तो परीक्षा विधि प्रवर्तिनी करें। यह विधि अपरिचित या अल्प परिचित दाता की दृष्टि से अपनाई जानी चाहिए। सुपरिचित एवं विश्वस्त श्रावक-श्राविका से वस्त्रादि ग्रहण करने में सूत्रोक्त विधि ही पर्याप्त है। पूछताछपूर्वक वस्त्र ग्रहण क्यों? पूर्व चर्चा के अनुसार भक्तार्थी साधु को निर्दोष वस्त्र देने पर वह तीन तरह के प्रश्न करें और उनका उचित समाधान मिलने पर ही उन्हें ग्रहण करें। नियुक्तिकार ने तीन प्रश्नों के पूछने का अभिप्राय यह बतलाया है कि पहले दो प्रश्नों से उसकी कल्पनीयता ज्ञात हो जाती है और तीसरे प्रश्न से दाता के भाव ज्ञात हो जाते हैं। यदि साधु बिना पूछे ही वस्त्रादि ग्रहण करता है और गृहपति एवं अन्य दास-दासी आदि लेन-देन की क्रिया को देख लेते हैं तो उनके विषय में अनेक प्रकार की शंकाएँ कर सकते हैं, जैसे 'इस स्त्री का और साधु का कोई पारस्परिक आकर्षण है अथवा इसके सन्तान नहीं हैं, इसलिए यह साधु से सन्तानोत्पत्ति के लिए कोई मन्त्र, तन्त्र या भेषज प्रयोग चाहती है।' इस प्रकार की नाना शंकाओं से आक्रान्त होकर गृह मालिक पत्नी, साधु या दोनों की निन्दा, मारपीट आदि कर सकता है। ___ यदि घर के किसी व्यक्ति ने ऐसी कोई बात देखी-सुनी नहीं है और देने वाली स्त्री सन्तानादि से हीन है तो वह किसी विद्या-मन्त्रादि की प्राप्ति हेतु उपाश्रय में जाकर कह सकती है कि “मुझे अमुक कार्य की सिद्धि का उपाय बताओ।' यदि दात्री कामातुरा हो तो मुनि के समक्ष वासना पूर्ति का निवेदन भी कर सकती है। यदि उस समय मुनि संयम मार्ग का उपदेश देने लगे या उसे पापाचरण हेतु निषेध करने लगे तो वह क्षुब्ध होकर साधु की अपकीर्ति कर सकती है, स्वयं के द्वारा दी गयी वस्तु वापस मांग सकती है और इसी प्रकार के अन्य अनेक उपद्रव भी कर सकती है। इन सब कारणों से साधु को तीन प्रश्न पूछकर तथा दिये जाने वाले वस्त्र-पात्रादि की पूर्ण शुद्धता ज्ञात होने पर और दाता के विशुद्ध भावों को यथार्थ जानकर ही वस्त्रादि ग्रहण करना उचित है। वस्त्र ग्रहण कब? जैन मुनि वस्त्र की याचना कब करें? इस सम्बन्ध में बृहत्कल्पसूत्र कहता है कि जिस स्थान पर साधु-साध्वियों को चातुर्मास करना हो वहाँ पूरे वर्षाकाल
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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