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________________ प्रतिलेखना एवं प्रमार्जना सम्बन्धी विधि-नियम...203 धर्मसंग्रह में प्रतिलेखन का सामान्य कारण जीव रक्षा और जिनाज्ञा पालन कहा गया है तथा मुख्य कारण मन की चंचल वृत्तियों को स्थिर करना बताया है।75 शास्त्रों में यह भी वर्णित है कि प्रतिलेखना से आठ कर्मों का क्षय होता है और सिद्ध पद की प्राप्ति होती है। जैन साहित्य में उदाहरण आता है कि वल्कलचीरी नामक साधु को पात्रों की प्रमार्जना करते-करते केवलज्ञान प्राप्त हुआ था। __इस वर्णन से ज्ञात होता है कि प्रतिलेखना आत्म शुद्धि का आवश्यक और प्रधान अंग है। इस कारण मुनि को प्रतिदिन दोनों समय और श्रावक को पौषधादि प्रतिलेखना करनी चाहिए। प्रतिलेखना के प्रति अहोभाव एवं रुचि जागृत करने के लिए यह सोचना चाहिए कि अनन्त उपकारी तीर्थंकर प्रभु, लब्धिसम्पन्न गणधर, श्रुतकेवली, गीतार्थ मुनि आदि अनेकानेक भव्यात्माओं ने जिस विधि का स्वयं पालन किया और अन्यों के लिए जिसकी प्रेरणा दी है, वह विधि या क्रिया सामान्य नहीं हो सकती है। प्रतिलेखना के सम्बन्ध में एक प्रश्न यह उभरता है कि प्रतिदिन उपयोगी वस्तुओं की पुनः पुनः प्रतिलेखना क्यों की जाती है? इसका सामान्य कारण यह है कि प्रकृति परिवर्तनशील है और उसमें वातावरण को प्रभावित करने की अद्भुत क्षमता है। इस प्रकार प्रकृति में होने वाली आर्द्रता, शुष्कता, रजकण आदि के पारस्परिक संयोग से वस्त्र-पात्रादि में जीवोत्पत्ति की पूर्ण संभावना रहती है। अत: सूक्ष्म-अदृश्य जीवों के रक्षणार्थ बार-बार धीरतापूर्वक प्रतिलेखन करना तीर्थंकरों की आज्ञा है। स्वास्थ्य की दृष्टि से भी धीरतापूर्वक बार-बार चक्षु संचालन, देह संचालन एवं मन:स्थैर्य लाभकारी होता है। . वस्त्र प्रतिलेखना उत्कटासन में ही क्यों? पाँवों के तलियों पर सीधे बैठना उत्कटासन कहलाता है। इसे उकईं आसन भी कहते हैं। इस आसन से देह शुद्धि होती है। देह शुद्धि होने से मल शुद्धि, रक्त शुद्धि और अपान शुद्धि भी होती है, जिसके फलस्वरूप जागरूकता बढ़ती है यही प्रतिलेखना का अनिवार्य अंग है। इस आसन द्वारा भली-भांति रक्त संचरण होने से आलस्य दूर होता है और शरीर में स्फूर्ति आती है, जो प्रतिलेखना का आवश्यक तत्त्व है।
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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