SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 247
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रतिलेखना एवं प्रमार्जना सम्बन्धी विधि-नियम...185 फिर शिष्य एक खमासमण देकर कहे- 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन्! सुद्धा वसही' गुरु कहें- 'तहत्ति'। तदनु शिष्य कहे- स्वामिन्! वसति प्रमार्जना करते हए दृष्टि की भ्रान्ति से या अविधि से आशातना हुई हो तो उसका मिच्छामि दुक्कडं देता हूँ।59 वसति प्रमार्जना कब और कितनी बार? वसति प्रमार्जन प्रात: और अपराह्न दो बार किया जाना चाहिए। आचार्य हरिभद्रसूरि के उल्लेखानुसार प्रात:काल में उपधि की प्रतिलेखना करने के पश्चात वसति की प्रमार्जना करनी चाहिए तथा सायंकाल में वसति प्रमार्जना करने के पश्चात उपधि की प्रतिलेखना करनी चाहिए।60 वसति की सामान्य प्रमार्जना कई बार की जाती है जैसे- संस्तारक बिछाने से पूर्व, संस्तारक समेटने के बाद। इसी तरह आहार भूमि, स्वाध्याय भूमि, प्रतिक्रमण भूमि, विहार भूमि आदि की प्रमार्जना उन-उन कार्यों को करते समय की जाती है। यतिदिनचर्या में उल्लेख है कि वसति जीवरहित हो तो भी चातुर्मास के सिवाय शेष आठ मास में दो बार और वर्षाऋतु में तीन बार तथा वसति जीवोपद्रव वाली हो तो बहुत बार प्रमार्जना की जा सकती है। यदि प्रमार्जना करने के उपरान्त भी जीवों का उपद्रव अति परिमाण में रहे तो अन्य वसति में चले जाना चाहिए। वसति प्रमार्जन का उद्देश्य यतना है। वह यतना अन्धकार में नहीं हो सकती है। इसलिए प्रात:काल में उपधि प्रतिलेखना के पश्चात वसति प्रमार्जन का नियम है। उपधि के पश्चात वसति प्रमार्जन का मुख्य हेतु जिनाज्ञा का परिपालन, जीवों के प्रति करुणा एवं क्षेत्र शुद्धि है। उपधि प्रतिलेखना की समाप्ति तक सूर्य का पर्याप्त प्रकाश हो जाने से अन्धकार पूर्णत: हट जाता है, तभी वसति की प्रमार्जना यतनापूर्वक हो सकती है।61 सायंकाल में पहले वसति प्रमार्जना फिर उपधि प्रतिलेखन करने के पीछे भी पूर्वोक्त कारण ही हैं। संध्या को उपधि प्रतिलेखना का समय चतुर्थ प्रहर के प्रथम भाग से शुरू होता है। यदि संध्या में उपधि प्रतिलेखना के बाद वसति की प्रमार्जना की जाए तो सूर्यास्त का समय निकट आने से प्रकाश मन्द होने लगता है। उस प्रकाश में वसति की प्रमार्जना यतनापूर्वक नहीं भी हो सकती है, अत: वसति प्रमार्जना के दोनों काल अहिंसाव्रत के सम्यक् पालन की दृष्टि से सर्वथोचित है।
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy